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________________ ५१२ क्षपणासार चौडी गोल आकार है । बहुरि आठ योजन ऊँची है । बहुरि स्थिर है । बहुरि श्वेत छत्रके आकारि है सो श्वेतवर्ण है | बीचिमें मोटी छेहडें पतली ऐसी है । बहुरि मनोहर है । यद्यपि ईषत्प्राग्भार नामा पृथ्वी घनोदधिवात वलयपर्यन्त है परन्तु इहां तिस पृथ्वीके वीचि पाइए है जो सिद्धशिला ताकी अपेक्षा ऐसा प्ररूपण कीया है। धर्मास्तिकायके अभावतें तहांत ऊपरी गमन न हो है । तहां ही चरम शरीरतें किंचित् ऊन आकाररूप जीव द्रव्य अनंत ज्ञानानंदमय विराजे हैं || ६४९ || goaurस्स तिजोगो संतो खीणो य पढमसुक्कं तु । विदियं सुक्कं खीणो इगिजोगो झायदे झाणी । । ६५०॥ पूर्वज्ञस्य त्रियोगः शांतः क्षोणश्च प्रथमशुक्लं तु । द्वितीयं शुक्लं क्षीण एकयोगो ध्यायति ध्यानी ॥ ६५० ॥ स० चं - शुक्लध्यान च्यारि प्रकार है तहां सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व्युपरत क्रियानिर्वृति ए दोऊ तो सयोगी अयोगी केवलीके हो हैं ते पूर्वे कहै । अर दोय शुक्लध्यान कौन कै हो है ? सो गाथा में वर्णन न कीया था सो अब इहां वर्णन करिए है जो महामुनि पूर्वनिका ज्ञाता तीन योगनिका धारक उपशमश्रेणी वा क्षपकश्रेणीवर्ती सो पृथक्त्ववितर्कवीचारनामा पहला शुक्लध्यानकों ध्यावें है । बहुरि दूसरे शुक्लध्यानकों क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती तीन योगनिविषे एक योगका धारक होइ सो ध्यावें हैं । इहां पृथक्त्व कहिए जुदा जुदा वितर्क कहिए भावश्रुतज्ञान ताकरि वीचार कहिए अर्थ व्यंजन योगनिका संक्रमण तहाँ अर्थ ध्यावने योग्य द्रव्य वा पर्याय तिनका अर व्यंजन श्रुतके शब्द तिनका अर योग मन वा वचन वा काय तिनका जो पलटना सो वीचार है । ऐसें जिस ध्यानविषै प्रवृत्ति होइ सो पृथक्त्ववितर्कवीचार जानना । बहुरि जहाँ एकत्व कहिए एकता लिए वित्तकं कहिए भाव श्रुत ताकरि अवीचार कहिए जिस अर्थको जिस श्रुतशब्दरूप जिस योगकी प्रवृत्ति लोएं ध्यावे ताकौं तैसें ही ध्यावे पलटना न होइ ऐसें एकत्वतर्कअवीचार ध्यानविषै प्रवृत्ति जाननी ॥ ६५० ॥ Jain Education International सो मे तिहुणअमहियो सिद्धो बुद्धों णिरंजणो णिच्चो । दिसदु वरणाणदंसणचरित्तसुद्धिं समाहिं च ।। ६५१ || स मे त्रिभुवनमहितः सिद्धः बुद्धो निरंजनो नित्यः । दिशतु वरज्ञानदर्शनचारित्रशुद्धि समाधि च ॥ ६५१ ॥ स० चं०–सो सिद्ध भगवान त्रिभुवनकरि पूजित भर बुद्ध कहिए सबका ज्ञाता अर निरंजन कहिए कर्म रहित अर नित्य कहिए विनाश रहित ऐसा है सो मुझको उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन चारित्रकी शुद्धता अर समाधि कहिए अनुभवदशा वा संन्यासमरण ताक द्यो प्राप्त करो। इहां सिद्धनिकै जो मोक्ष अवस्था भई ताको स्वरूप सर्वं कर्मका सर्वथा नाशतें संपूर्ण आत्मस्वरूपकी प्राप्तिरूप जानना । बहुरि अन्यमती अन्यथा कहै है सो न श्रद्धान करना । तहाँ बौद्ध तौ है जैसें दीपकका निर्वाण कहिए बुझना तैसें आत्माका स्कंध संतानका नाश हो जो अभाव होना सोई निर्वाण है ताको कहिए है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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