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________________ योगनिरोधके समय क्रियाविशेषका निर्देश ५०३ ऐसें जघन्य योगस्थान सूक्ष्म निगोदिया लब्धिअपर्याप्तका विग्रहगतिविर्षे प्रथम समयवर्ती जीवकै हो है। ताके प्रदेशनिविर्षे योगशक्तिकी हीन-अधिकता पूर्वोक्त प्रकार जाननी । बहुरि याविर्षे सूच्यंगुलका असंख्यातवां भागमात्र जे जघन्य स्पर्धक तिनके जेते अविभागप्रतिच्छेद होइ तिनने मिलाएं दूसरा स्थान हो है। तिस जघन्य योगस्थानतें बंधता औरनितें घटता योगस्थान कोई जीवके होइ तो दूसरा स्थान होइ, यातै घाटि न होइ। या प्रकार एक एक स्थानप्रति सूच्यंगुलका असंख्यातवां भागमात्र जघन्य स्पर्धक बंधै । ऐसें जगच्छ्रेणिका असंख्यातवां भागमात्र स्थान भएं सर्वोत्कृष्ट योगस्थान हो है। सो संज्ञी पर्याप्तककै संभव है। या प्रकार योगस्थान हैं, तिननि सयोगि जिन हैं सो पहिले संज्ञी पर्याप्तिकै संभवता जो बादर काययोगरूप स्थान तिसरूप प्रवर्ततौ ताकौं नष्टकरि सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य स्थानतें असंख्यातगुणा घटता सूक्ष्म काययोग तिसरूप प्रवा । बहुरि तिस पूर्व स्पर्धकरूप सूक्ष्म काययोगकी शक्तिकौं अपूर्व स्पर्धकरूप परिणमावे है। इहांतें पहले कवहूं ऐसी क्रिया न भई तातै सार्थक अपूर्व स्पर्धक नाम है । ते अपूर्व स्पर्धक योगनिका जघन्य स्थानसम्बन्धी जघन्य स्पर्धकके नीचे असंख्यातगणा घटता अविभागप्रतिच्छेद लीएं हो हैं । तिनका प्रमाण जगच्छ्रेणिके असंख्यातवां भागप्रमाण है ॥६३१॥ विशेष-जब सूक्ष्म काययोग करनेके बाद यह जीव सूक्ष्म काययोगकी परिस्पन्द शक्तिको सूक्ष्म निगोदिया जीवोंके जघन्य योगसे भी असंख्यातगुणी होन परिणमाता हुआ उसे भी अत्यधिक अपकर्षित करके अपूर्व स्पर्धकरूपसे परिणमाता है तब इसकी अपूर्व स्पर्धककरण संज्ञा होती है । अतएव यहाँ इस करणका प्ररूपण करनेके लिए पूर्व स्पर्धककों श्रेणिके असंख्यातवें भागरूपसे रचना करनी चाहिये। ऐसा करनेपर सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य स्थानसम्बन्धी स्पर्धकोंसे वे स्पर्धक असंख्यातगुणे हीन होकर स्थित होते हैं, अन्यथा उनसे ये सूक्ष्मपनेको नहीं प्राप्त हो सकते । इस प्रकार पूर्व स्पर्धकोंसे अपूर्व स्पर्धक करनेकी यह प्रक्रिया है। पुव्वादिवग्गणाणं जीवपदेसा विभागपिंडादो । होदि असंखं भागं अपुव्वपढमम्हि ताण दुगं' ॥६३२।। पूर्वादिवर्गणानां जीवप्रदेशाविभागपिंडतः । भवति असंख्य भागमपूर्वप्रथमे तयोद्विकम् ॥६३२॥ स० चं९–पूर्वस्पर्धकनिके जीवके प्रदेशनिका पिंडते अर आदि वर्गणाका अविभागप्रतिच्छेदनिका पिंडतै अपूर्व स्पर्धकका प्रथम समयविर्षे तिनके ते दोऊ असंख्यातवें भागमात्र हो हैं । भावार्थ पूर्व स्पर्धकनिके सर्व प्रदेश साधिक द्वयर्धगुणहानिगुणित प्रथम वर्गणामात्र हैं। तिनकौं अपकर्षण भागहारमात्र असंख्यातका भाग दीए जो एक भागमात्र प्रदेश तिनको अपूर्व स्पर्धकरूप हो है । बहुरि पूर्व स्पर्धकनिकी जो आदि वर्गणा ताका वर्गविर्षे जे ते अविभागमात्र प्रदेश तिनकौं अपूर्व स्पर्धकरूप हो है। बहुरि पूर्व स्पर्धाकनिकी जो आदि वर्गणा ताका वर्गविर्षे जेते अविभाग १. आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकदि। जीवपदेसाणं च असंखेज्जदिभागमोकड्डुदि । एवमंतोमुहत्तमपुव्वफद्दयाणि करेदि । क. चु. पृ. ९०४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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