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________________ क्षीणकषाय गुणस्थानमें क्रियाविशेषका निरूपण ४८९ स्थिति स्था५ है। ताका प्रमाण स्त्रीवेद सहित चढयाकै जितना स्त्रीवेदकी प्रथम स्थिति ताका प्रमाण कह्या तावन्मात्र ही है। बहुरि अन्तरकरण कीएं पीछे यावत् पुरुषवेदसहित चढ्या जोवकै नपुंसकवेदका क्षपणा काल है तावत् याकै एक नपुंसकवेदहीको क्षपणा हुआ करै है। परन्तु तहां नपुंसकवेदकी क्षपणा होइ निवरै नाही, तहां पीछे पुरुषवेद सहित श्रेणी चड्याकै जो स्त्रीवेदका क्षपणाकाल है तिस विर्षे याकै नपुंसकवेद अर स्त्रीवेद दोऊनिकी क्षपणा होने लगै, सो स्त्रीवेद क्षपणाकालका अन्त समयविर्षे सर्व नपुंसक स्त्रीवेदकौं युगवत् क्षय करै है । इहां द्रव्यार्थिक नय विद्यमानका नाशकौं कहै है तिस अपेक्षा इस समय नष्ट भया कह्या। पर्यायार्थिक अविद्यमान वस्तुका नाशकौं कहै है। तिस अपेक्षा इस समयविर्षे एक निषेकका सत्त्व है सो अगले समयविर्षे नष्ट होगा ऐसा जानना। ताके अनंतरि स्त्रीवेदसहित चढया जीववत् अपगतवेद होत संता सप्त नोकषायनिका क्षपणा कालविष सर्व सप्त नोकषायनिकौं क्षपावै है। इहां भी परुषवेदका बंधका अभाव है । तातै नवक समयप्रबद्धका पीछे क्षिपावना न संभवै है । ताके ऊपरि जैसैं पुरुषवेदसहित श्रेणी चढे च्यारि प्रकार जीवनिका वर्णन कीया तैसै ही नपुंसकवेद सहित श्रेणी चढे च्यारि प्रकार जीवनिका वर्णन जानना । ऐसें तीन प्रकार पुरुषवेदसहित श्रेणी चढे, च्यारि प्रकार स्त्रीवेद सहित चढे च्यारि प्रकार नपंसकवेदसहित श्रेणी चढे ए ग्यारह प्रकार जीव तिनके वीचिकी क्रियानिविर्षे इहां विशेष वर्णन कीया सो विशेष जानना। अब शेष नीचे वा ऊपरी सर्व विधान क्रोधका उदय अर पुरुषवेदका उदयसहित श्रेणी चढयाकै जैसे कया तैसेंही अवशेष ग्यारह प्रकार उदयसहित जीवनिकै जानना । इहां तर्क ____ जो अनिवृत्तिकरणविर्षे एक समयवर्ती सव जीवनिकै परिणाम समान कहे हैं इहाँ तुम परस्पर विशेष कैसे कहो हो ? ताका समाधान—परिणामनिकी विशुद्धताकी अपेक्षा समान नाहीं है, परंतु नानाप्रकार वेद कषायका उदयरूप सहकारी कारणका निकट होते नानाप्रकार क्षपणाकार्य हो है। ६०७ । ६०८ । विशेष-अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें सब जीवोंका समान समयमें अनिवृत्ति परिणाममें भेद नहीं होता, एक ही नियम है, फिर क्रोधादि कषायों और पुरुषादि वेदोंकी अपेक्षा यह भेद कैसे होता है ? यह एक प्रश्न है । समाधान यह है-सबका जीवोंका समान समयमें समान एक परिणाम होते हुए भी कषायोंके उदयके साथ वेदोंके उदयमें भेद होनेके कारण यह नानात्व बन जाता है । तात्पर्य यह कि भिन्न-भिन्न जीवोंके भिन्न-भिन्न कषाय और वेद पाया जाता है, इसलिये उक्त प्रकारसे नानात्व बननेमें कोई बाधा नहीं आती। यहाँ विशुद्धताकी अपेक्षा समान समयवर्ती जीवोंका अनिवृत्ति परिणाम समान है उनमें भेद नहीं है । भेद है तो विविध कषायों और वेदोंमें है, इसलिये उनकी अपेक्षा क्षपणाके क्रममें भेद पड़ जाता है। ऐसे अवसर पाइ विशेषका कथन करि पूर्व क्षीणकषायका द्विचरम समयपर्यंत कथन कीया था अब आगे कथन करिए है चरिमे पढमं विग्धं चउदंसण उदयसत्त वोच्छिण्णा । से काले जोगिजिणो सव्वण्हू सव्वदरसी य ॥६०९॥ चरमे प्रथमं विघ्नं चतुर्दर्शनं उदयसत्त्वव्युच्छिन्नाः । स्वे काले योगिजिनः सर्वज्ञः सर्वदर्शी च ॥६०९॥
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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