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________________ अर्थ इहां लिखिए है। विस्तार होनेके भयतें विशेष नाहीं लिखिए है वा कोई कठिन अर्थ मेरी समझिमैं नीके न आवनेत इहां न लिखिए है, सो संस्कृत टीका वा क्षपणासारतें जानियो । बहुरि असे व्याख्यान करतें कहीं चूक होइ, बुद्धिकी मंदतातै अन्यथा लिखों तहां विशेषज्ञानी संवारि शुद्ध करियो, जातें अर्थ तो गंभीर है अर बुद्धि मेरी तुच्छ है, तातै कहीं चूक भी पर। असे विचारिकरि इस भाषा करने का प्रारंभ कीजिए है। तहां प्रथम केते इक अर्थ वा संज्ञा विशेष दिखाइए है । जिनिकौं जानै आज तिनिका वर्णन जहां आवै तहां इनिकौं यादिकरि नीके अर्थज्ञानी होइ । तहां इस शास्त्रविर्षे दश करणनिका विशेष प्रयोजन है, तातै प्रथम इनिका स्वरूप कहिए है कर्मनिकी दश अवस्था है-बंध १ सत्त्व २ उदय ३ उदीरणा ४ उत्कर्षण ५ अपकर्षण ६ संक्रमण ७ उपशम ८ निधत्ति ९ निकांचना १० ए दश करण हैं। सो इनिका स्वरूप गोम्मटसारका कर्मकांडविर्षे दश करण चूलिका नामा अधिकार है तहां कहा है सो जानना। इहां भी प्रयोजन जानि किछू लिखिए है-तहां नवीन पुद्गलनिका कर्मरूप आत्माकै सम्बन्ध होना ताका नाम बन्ध है । सो च्यारि प्रकार है-प्रकृतिबन्ध १ प्रदेशबन्ध २ स्थितिबन्ध ३ अनुभागबन्ध ४। तहां कर्मरूप होने योग्य जे कार्मण वर्गणारूप पुद्गल तिनिका ज्ञानावरणादि मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृतिरूप परिणमना सो प्रकृतिबन्ध है। तहां जेती प्रकृतिनिका जहां बन्ध संभवै तहां तितनी प्रकृतिबन्ध जानना । बहुरि तिनि प्रकृतिरूप जितनी पुदगल परमाणु परिणमी तिनिका प्रमाणरूप प्रदेश बन्ध है, जाते इहां प्रदेश नाम पुद्गल परमाणूका है सो अभव्य राशितै अनन्तगुणा असा जो सिद्धराशिके अनन्तवां भागमात्र प्रमाण तिस प्रमाणमात्र परमाणु मिलि एक कार्मण वर्गणा हो है। अर तितनी ही वर्गणा मिलि एक समयप्रबद्ध हो है। इतनी परमाणू समय समय विष कर्मरूप होइ एक जीवकै बध, तातै याका नाम समयप्रबद्ध है । सो यह सामान्य प्रमाण है। विशेष योगनिकी अधिक हीनताके अनुसारि समयप्रबद्धविष परमाणूनिकी अधिक हीनता जाननी । बहरि एक समयविष ग्रह्या हवा जो समयप्रबद्ध सो यथासम्भव मूल प्रकृति वा उत्तर प्रकृतिरूप परिणमै । तहां तिन प्रकृतिनिके परमाणु निके विभागका विधान गोम्मटसारका बन्ध सत्त्व उदय अधिकारविष प्रदेश बन्धका व्याख्यान करते कहया है सो जानना। सो जिस प्रकृतिकै जितनी परमाणु बटमें आवं तिस प्रकृतिका तितने परमाणूनिका समूहमात्र समयप्रबद्ध जानना । बहुरि जे परमाणू प्रकृतिरूप बन्धी ते परमाणू तिसरूप इतना काल रहसी जैसा बंध होतें स्थितिका प्रमाण होना सो स्थितिबंध है। तहां एक समयविषै जो स्थितिबंध भया ताविष बंध समयत लगाय आबाधा काल पयंत तौ तहां बंधी हुई परमाणनिके उदय आवने योग्य. पनेका अभाव है, तातै तहां निषेकरचना है नाहीं । ताके पीछे प्रथम समयतै लगाइ बंधी हुई स्थितिका अन्त समय पर्यत एक एक समयविर्षे एक एक निषेक उदय आवने योग्य हो है । तातै प्रथम निषेककी स्थिति एक समय अधिक आबाधा कालमात्र है। द्वितीय निषेककी स्थिति दोय समय अधिक आबाधा कालमात्र हैं। असै क्रमतें द्विचरम निषेकको स्थिति एक समय घाटि स्थितिबंधप्रमाण है। अन्त निषेककी स्थिति सम्पूर्ण स्थितिबंधप्रमाण है । जैसैं मोहको सत्तर कोडाकोडी सागरको स्थिति बंधो, तहां सात हजार वर्षका आबाधा काल है अर प्रथम निषेककी स्थिति एक समय अधिक सात हजार वर्ष है। द्वितीयादि निषेकनिकी क्रमतें एक एक समय अधिक होइ अन्त निषेककी सत्तर कोडाकोडी सागरप्रमाण स्थिति जाननी । असे ही आयु विना सात कर्मनिका विधान है। बहरि आयका स्थितिबंध विर्षे आबाधा काल नाहीं गिनिए हैं, जाते ताका आबाधा काल पूर्व पर्याय वि. ही व्यतीत हो है। तहां तिस कायके उदय होने योग्यपनाका अभाव हैं, तातें आयुका प्रथम निषेककी स्थिति एक समय द्वितीय निषेककी दोय समय असै क्रमते अन्त निषेककी सम्पूर्ण स्थितिबंधमात्र स्थिति जाननी । औसैं एक समय विष बंधी जो स्थिति तिहिविर्षे विशेष जानना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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