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________________ ४६३ सूक्ष्म-बादर कृष्टियोंके प्रमाण तथा उनमें द्रव्यके वटवारेकी प्ररूपणा विदियादिसु समयेसु अपुवाओ पुनकिट्टिहेट्ठाओ। पुव्वाणमंतरेसु वि अंतरजणिदा असंखगुणा' ॥५७१॥ द्वितीयादिषु समयेषु अपूर्वाः पूर्वकृष्टयधस्तनाः । पूर्वासामंतरेष्वपि अंतरजनिता असंख्यगुणाः ॥५७१॥ स० चं०-द्वितीयादि समयनिविषै अपूर्व नवीन सूक्ष्म कृष्टि करिए है । ते पूर्व समयविष कीनी जे सूक्ष्म कृष्टि तिनके नोचें करिए है अर तिनके वीचि करिए है। नीचें करिए तिनकौं अधस्तन कृष्टि कहिए । वीचि करिए तिनकौं अन्तर कृष्टि कहिए। तहां अधस्तन कृष्टिनिका प्रमाण स्तोक है । तिनतै अन्तर कृष्टिनिका प्रमाण असंख्यातगुणा है ॥५७१।। दव्यगपढमे सेसे देदि अपुव्वेसणंतभागूणं । पुव्वापुव्वपवेसे असंखभागूणमहियं च ॥५७२।। द्रव्यगप्रथमे शेषे ददाति अपूर्वेष्वनंतभागोनम् । पूर्वापूर्वप्रवेशे असंख्यभागोनमधिकं च ॥५७२॥ - स० चं०-द्वितीयादि समयनिविर्षे प्रथम समयवत् द्रव्य दीजिए है। विशेष इतना-सूक्ष्म कृष्टिसम्बन्धी द्रव्यको अधस्तन अपूर्व कृष्टिनिविबै अनन्तवाँ भाग घटता क्रम लीए बहुरि पूर्व कृष्टिका प्रवेशविर्षे असंख्यातवां भागमात्र घटता अर अपूर्व कृष्टिका प्रवेश होते असंख्यातवां भागमात्र अधिक द्रव्य दीजिए है। सोई विशेषकरि कहिए है द्वितीयादि समयनिविष घात द्रव्य अर संक्रमण द्रव्यका विभाग तौ पूर्ववत् करना । बहुरि सूक्ष्म कृष्टिके अथि अपकर्षण कीया द्रव्य समय समय प्रति असंख्यातगुणा है। ताका विभागविष विशेष है सो कहिए है ____ तिस अपकर्षण कीया द्रव्यतै पूर्व समयविर्षे कीनी कृष्टिसम्बन्धी एक विशेष आदि, एक विशेष उत्तर, पूर्व समयविर्षे कोनी कृष्टिनिका प्रमाणमात्र गच्छ स्थापि तहां संकलन धनमात्र द्रव्य ग्रहि जुदा स्थापना । याका नाम अधस्तन शीर्ष विशेष है। बहुरि पूर्व समयवि कीनी कृष्टिनिविर्षे १. सुहुमसंरपाइयकिट्टीकारगो विदियसमये अपुवाओ सुहुमसांपराइयकिट्टीओ करेदि असंखेज्जगुणहीणाओ। ताओ दोसु दाणेसु करेदि । तं जहा-पढम समए कदाणं हेटा च अंतरे च । हेट्टा थोवाओ । अंतरेसु असंखेज्जगुणाओ । क० चु० ८६५ ।। २. विदियसमये दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स सेढिपरूवणा। जा विदियसमए जहणिया सुहमसांपराइयकिट्टी तिस्से पदेसग्गं दिज्जदि बहुअं । विदियाए किट्टीए अणंतभागहीणं । एवं गंतूण पढमसमए जा जहणिया सुहुमसांपराइयकिट्टी तस्स असंखेज्जदिभागहीणं । तत्तो अणंतभागहीणं जाव अपुव्वं णिव्वत्तिज्जमाणगं ण पावदि । अपवाए णिव्वत्तिज्जमाणियाए किट्रीए असंखज्जदिभागुत्तरं। पुव्वणिव्वत्तिदं पडिवज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स असंखेज्जदिभागहीणं । परं परं पडिवज्जमाणगस्स अणंतभागहीणं । जो विदियसमए दिज्जमाणगस्स पदेसग्गस्स विधी सो चेव विधी सेसेसू वि समएस जाव चरिमसमयबादरसांपराइओ त्ति । क. चु०, पृ० ८६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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