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________________ ४६२ क्षपणासार लीएं द्रव्य दीजिए है। भावार्थ-द्वितीयादि बादर कृष्टिनिविर्षे एकादि एक एक बंधता क्रम लीएं अधस्तन शीर्षके विशेष अर एकादि एक अधिककरि हीन सर्व बादर कृष्टिप्रमाणमात्र उभयद्रव्यके विशेष अर एक एक मध्यम खण्ड तहां दीजिए है । सो एक उभय द्रव्यका विशेषवि. एक अधस्तन शीर्ष विशेष घटाइए है । इतना इतना क्रमतें घटता द्रव्य दीजिए है सो संक्रमण द्रव्यकरि निपजी अपूर्व कृष्टि पर्यन्त यहु अनुक्रम जानना । बहुरि जहां संक्रमण द्रव्य नवीन अपूर्व कृष्टि निपजी तिसविर्षे संक्रमणांतर कृष्टिसम्बन्धी समान खण्ड उभय द्रव्य विशेष द्रव्यतै भई कृष्टिनिका प्रमाण करि हीन सर्व कृष्टिनिका प्रमाणमात्र विशेष ग्रहि दीजिए है । सो यहु अपनी नीचली पूर्व कृष्टिविषै दीया द्रव्यतै असंख्यातगणा है। बहरि ताके ऊपरि पूर्व कृष्टिविर्षे भई कृष्टिनिका प्रमाणमात्र अधस्तन शीर्षके विशेष एक मध्यम खण्ड, भई कृष्टिनिकरि हीन सर्व कृष्टिनिका प्रमाणमात्र उभय द्रव्यके विशेष दीजिए है । सो यहु यातै नीचली अपूर्व कृष्टिविर्षे दीया द्रव्यतै असंख्यातगुणा घाटि है। बहरि ताके ऊपरि भी पूर्वोक्त प्रकार द्रव्य दीजिए है। बहुरि द्वितीय संग्रह कृष्टिकी जघन्य कृष्टिविय भई कृष्टिनिका प्रमाणमात्र अधस्तन शीर्षके विशेष, एक मध्यम खण्ड, भईं कृष्टिनिका प्रमाणकरि हीन सर्व कृष्टिनिका प्रमाणमात्र उभय द्रव्यके विशेष दीजिए है । ताके ऊपरि एक-एक अधस्तन शीर्षविशेष बंधता अर एक उभय द्रव्यका विशेष घटता क्रमकरि द्रव्य दीजिए है। विशेष इतना-- बंधकृष्टिकी जघन्य कृष्टिनै लगाय उभय द्रव्यका विशेषविषै एक विशेषका अनंतवां भागमात्र घटता क्रमकरि द्रव्य दीजिए है। अर तहां बंध द्रव्यतै एक एक मध्यम खंड अर भई बन्ध कृष्टिनिकरि हीन सर्वकृष्टिनिका प्रमाणमात्र बन्ध विशेषकौं ग्रहि दीजिए है। ऐसै क्रम होते जहां बन्ध द्रव्यकरि अपूर्व कृष्टि निपजाइए है तहाँ बन्धद्रव्यतै बंधांतर कृष्टिसम्बन्धी समान खण्ड द्रव्यतै एक खण्ड अर बंधांतर कृष्टिसम्बन्धी विशेष द्रव्यतै भई सर्व कृष्टिनिका प्रमाणकरि हीन सर्व कृष्टिनिका प्रमाणमात्र विशेष ग्रहिकरि दीजिए है । सो यह नीचली कृष्टिविर्षे दीया बंध व्यतै अनन्तगणा है। ताके ऊपरि पूर्व कृष्टिविणे तीन प्रकार घात द्रव्य दोय प्रकार बन्ध द्रव्य दीजिए है । सो इहां दीया बन्ध द्रव्य अपूर्व अंतर कृष्टिविर्षे दीया द्रव्यतै अनंतगुणा घाटि है। ताके ऊपरि बन्धरूप पूर्व कृष्टि वा बन्धकरि निपजी अपूर्व कृष्टि वा बन्ध रहित पूर्व कृष्टिनिविष द्रव्य देनेका विधान पूर्वोक्त प्रकार ही जानना। ऐसे प्रथम समयविषै सूक्ष्म कृष्टिसम्बन्धी प्ररूपण समाप्त भया ॥५७०॥ विशेष-प्रथम समयमें सक्षमसाम्पराय कृष्टियोंको करनेवाला जीव उक्त कृष्टियोंमें अपकर्षित द्रव्यका किस प्रकार बटवारा करता है, प्रकृत गाथा में इसका निर्देश करते हुए बतलाया गया है कि जघन्य सूक्ष्म कृष्टिमें सबसे अधिक प्रदेशपुंजको देता है, दूसरी कृष्टिमें अनन्तवें भागप्रमाण विशेष हीन द्रव्य देता है। इसी प्रकार अन्तिम सूक्ष्म कृष्टिके प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेष हीन विशेष हीन द्रव्य देता है। आगे जघन्य बादर कृष्टिमें अन्तिम सूक्ष्म कृष्टिकी अपेक्षा असंख्यातगुणा हीन द्रव्य देता है। आगे सर्वत्र उत्तरोत्तर अनन्तवाँ भागप्रमाण विशेष हीन विशेष हीन द्रव्य देता है। तात्पर्य यह है कि अपकर्षित द्रव्यमें से बहुभाग प्रमाण द्रव्य सूक्ष्म कृष्टियोंमें देता है और एक भागप्रमाण द्रव्य बादर कृष्टियोंमें देता है। किस विधिसे देता है इसका निर्देश पूर्वमें किया ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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