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________________ कषाय स्थितिबन्ध आदिकी प्ररूपणा ४५३ स० चं०-- क्रोध वेदकके अनंतरि अपने काल विषै मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिका द्रव्य एकगुणा था अर पंद्रहगुणा क्रोधको तृतीय संग्रह कृष्टिका द्रव्य मिल्या सो मिलिकरि सोलहगुणा भया । ताक अपकर्षण भागहारका भाग दीएं एक भागमात्र द्रव्य ग्रहि गुणश्रेणिरूप प्रथम स्थिति कर । सो क्रोधवेदक कालतें किछू घाटि जो मानका वेदककाल ताका तीसरा भाग आवलीकरि अधिक तिस प्रथमस्थितिका प्रमाण है। तहाँ मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदक हो है ।।५५५ ।। कोहपढमं व माणो चरिमे अंतो मुहुत्तपरिहीणो । दिणमासपण्णचत्तं बंधं संतं तिसंजलणगाणं ॥ ५५६ ।। क्रोधप्रथमं व मानः चरमे अंतर्मुहूतंपरिहीनः । दिनमासपंचाशच्चत्वारिंशत् बंधः सत्त्वं त्रिसंज्वलनानां ॥५५६ ॥ सं० चं० - क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदकवत् मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदकका विधान जानना । विशेष इतना - क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिका वेदकके बंध द्रव्यकरि उपजों जे नवीन अन्तर कृष्टि तिनका प्रमाण ल्यावनेकौं भागहारका प्रमाण छह गुणहानि मात्र कह्या था, इहाँ तातैं चौथाई घाटि है, तातें साढा च्यारि गुणहानिमात्र है । आगें भी इतना ही घाटि जानना । सो मायाकी प्रथम संग्रह कृष्टि वेदककै तीन गुणहानिमात्र, लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टिविषै ड्योढ गुणहानिमात्र भागहार जानना । याका भाग सर्व कृष्टिनिकौं दीएँ क्रोधकी प्रथम संग्रह कृष्टिवेदक तो गुणहानिका चौथा भागमात्र अन्तरालका प्रमाण कह्या था । इहाँ वा आता सोलह्वाँ भागमात्र क्रमतें घटता जानना । सो मान माया लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि वेदककेँ बंध द्रव्यकरि निपजी नवीन कृष्टिनिके वीचि जे कृष्टि पाइए तिनका प्रमाणमात्र अंतराल क्रम गुणहानिका तीन सोलवाँ भागमात्र, दोइ सोलह्वां भागमात्र, एक सोलहवाँ भागमात्र स्थापि । बहुरि क्रोधकी प्रथम द्वितीय तृतीय कृष्टि वेदककें गुणकार क्रमते तेरह चौदह पंद्रह अरमानकी प्रथमादि संग्रह कृष्टि वेदककै गुणकार क्रमते सोलह सतरह अठारह वा मायाकी प्रथमादि संग्रह कृष्टि वेदककें गुणकार क्रमतें उगणीस वीस इकईसका, लोभकी प्रथमादि संग्रह कृष्टि वेदक गुणकार क्रमतें बाईस तेईस चौईसका है। तहां अपने-अपने गुणकार करि गुण्यक गुण अन्तरालका प्रमाण आवे है । बहुरि इतना जानना - क्रोध वेदककेँ च्यारयो कषायोंका, मानवेदककें क्रोध विना तीन कषायनिका, माया वेदक क्रोध मान विना दोय कषायनिका, लोभ वेदककै लोभ हीका बंध । तातैं इनके ही बंध द्रव्यकरि अन्तर कृष्टि निपजै हैं । बहुरि जिस कृष्टिकौं भोगिए है ताका द्रव्य जिन कृष्टिनिविषै संक्रमण कर है तिनविषै संक्रमण द्रव्यकरि निपजी जे कृष्टि तिनका अन्तरालविषै भी यथासंभव जानना । बहुरि मान प्रथम संग्रह कृष्टि वेदककी प्रथम स्थितिविषै समय अधिक आवली अवशेष रहें अन्त समय होइ । तहाँ क्रोध बिना तीन संज्वलनका स्थितिबंध अन्तर्मुहूर्त Jain Education International १. जेणेव विहिणा कोधस्स पढमकिट्टी वेदिदा तेणेव विधिणा माणस्स पढमकिट्टि वेदर्यादि ******** | - क० चु०, पृ० ८५९ । २. देण कमेण माणपढमकिट्टि वेदयमाणस्स जा पढमट्टिदी तिस्से पढमट्टिदीए जाधे समयाहियावयसा ताधे तिहं संजलणाणं ठिदिबंधो मासो वीसं च दिवसा अंतोमुहुत्तूणा । क० चु०, पृ० ८५९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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