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________________ ४५० प्रकार हो है । बहुरि लोभको तृतीय संग्रहकृष्टिविषै व्यय द्रव्य नाहीं, परन्तु आय द्रव्य है, तातैं दश संग्रहकृष्टिनिविषै संक्रमण द्रव्यका पूर्व अपूर्वकृष्टिनिविषै देना पूर्वोक्त प्रकार हो है । ऐसा जानना || ५४७ ॥ क्षपणासार जस्स कसायरस जं किटिंट वेदयदि तस्स तं चैव । सेसाणं कसायाणं पढमं किट्टि तु बंधदि हुँ || ५४८॥ यस्य कषायस्य यां कृष्टि वेदयति तस्य तां चैव । शेषाणां कषायाणां प्रथमां कृष्टि बध्नाति हि ॥ ५४८ ॥ स० चं० - जिस कषायकी जिस संग्रहकृष्टिकों वेदै भोगवै है तिस कषायकी तौ तिस ही संग्रहकृष्ट बांधे है । बहुरि अन्य कषायनिकी प्रथम संग्रहकृष्टिकों बांधे है ऐसी व्याप्ति है । तातैं बंध द्रव्यका विधान च्यारि ही संग्रहकृष्टिनिविषै जानना सो इहां क्रोधकी द्वितीय संग्रहकृष्टि र अन्य कषायनिकी प्रथम संग्रहकृष्टिकों बांधे है ||५४८ ॥ Jain Education International माणतिय कोइतदिये मायालोहस्स तियतिये अहिया । संखगुणं वेदिज्जे अन्तरकिट्टी पदेसो य ।। ५४९ ॥ मानत्रयं क्रोध तृतीये मायालोभस्य त्रिकत्रिके अधिका । संख्यगुणं वेद्यमाने अन्तरकृष्टिः प्रदेशश्च ।। ५४९ ॥ स० चं०--इहां संग्रहकृष्टिनिविषै अवयव कृष्टिनिका वा द्रव्यका अल्पबहुत्व कहिए है, सो मानक तीन अर क्रोधकी एक तीसरी ही अर माया लोभकी तीन तीन इन संग्रह कृष्टिनिविषै तौ विशेष अधिक अर वेद्यमान क्रोधकी दूसरी कृष्टिविषै संख्यात्तगुणा कृष्टिनिका वा प्रदेशनिका प्रमाण क्रमतें है । सोई कहिए है मानकी प्रथम संग्रहकृष्टिका स्तोक, तातैं मानकी दूसरीका, तातें मानकी तीसरीका, तातें क्रोधकी तीसरीका, तातैं मायाकी प्रथमका, ताते मायाकी दूसरीका, तातैं मायाकी तीसरीका, तातें लोभकी प्रथमका, तातैं लोभकी दूसरीका, तातैं लोभकी तीसरीका, अवयव कृष्टिनिका प्रमाण क्रमतें विशेषकर अधिक है । तहां विशेषका प्रमाण स्वस्थानविषै तौ पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दीएं आवे है । जैसें मानकी प्रथम संग्रह कृष्टिकी अवयव कृष्टिनिका प्रमाण याहीक पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दीएं जो एक भागमात्र विशेष ताकरि अधिक मानकी द्वितीय संग्रहकृष्टिकी अवयव कृष्टिनिका प्रमाण हो है । ऐसें ही अन्यत्र जानना । बहुरि परस्थानविषै आवलीका असंख्यातवां भागका भाग दीएं विशेषका प्रमाण आवै है । जैसें मानकी तीसरी संग्रहकृष्टिकी अवयव कृष्टिप्रमाण क्रमतें याहीको आवलीका असंख्यातवां भागका भाग दीएं एक भागमात्र विशेषकर अधिक क्रोधकी तृतीय संग्रहकृष्टिकी अवयव कृष्टिनिका प्रमाण हो है । ऐसें १. चदुण्हं कसायाणं जस्स जं किट्टि वेदयदि तस्स कसायस्स तं किट्टि बंधदि, सेसाणं कसायाणं पढमकिट्टीओ बंधदि । क. चु. पु. ८५७ ॥ २. क. चु. पृ. ८५७-८५८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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