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________________ ४३० क्षपणासार अब जैसैं स्वस्थान परस्थान गोपुच्छका सद्भाव हो है तैसें कहिए हैघादयदव्वादो पुण वय आयदखेत्तदव्वगं देदि । सेसासंखाभागे अनंतभागूणयं देदि ।। ५२६ ।। घातकद्रव्यात् पुनर्व्ययमायतक्षेत्रद्रव्यकं ददाति । शेषासंख्यभागं अनंतभागोनकं ददाति ॥ ५२६ ॥ स० चं - घात द्रव्यतें व्यय द्रव्य अर आयतक्षेत्र द्रव्यकों दीएं एक गोपुच्छ हो है । कैसें ? सो कहिए है Jain Education International पूर्वै जो व्यय द्रव्य कह्या तामैं जिनि कृष्टिनिका घात कीया तिनि कष्टिनिका व्यय द्रव्य घटाएं अवशेष रहें तित्तना द्रव्य घातद्रव्यतें ग्रहणकरि जिन कृष्टिनिका जितना जितना व्यय द्रव्य था तिन कृष्टिनिका तितना तितना देइ पूरण कीएं स्वस्थान गोपुच्छका सद्भाव हो है । घात कृष्टिसम्बन्धी व्यय द्रव्य कितना ? सो कहिए है अपनो अपनी संग्रहकृष्टिकी अन्त कृष्टिका द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग दीएं तिस अन्तकृष्टका व्यय द्रव्यका प्रमाण आवें हैं । ताकौं अपनी अपनी घात कृष्टिनिका प्रमाणकरि गुण अर तहां विशेष अधिक कीएं सर्व घात कृष्टिसम्बन्धी व्यय द्रव्यका प्रमाण हो है, सो घात कृष्टिनिका तौ नाश ही भया सो तहां द्रव्य देना ही नाही । तातें याकौं व्यय द्रव्यविषै घटाइ अवशेष व्यय द्रव्यमात्र द्रव्य देनेकरि स्वस्थान गोपुच्छकी सिद्धि हो है । बहुरि लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टिका घात कीएं पीछे अवशेष रहीं जे कृष्टि तिनविषै जो अन्त कृष्टि तिसतें लोभकी द्वितीय संग्रहकी प्रथम संग्रह कृष्टि है सो बीचि ही कृष्टिका घात होनेतें एक अधिक लोभकी तृतीय संग्रहको घात कृष्टिनिका प्रमाणमात्र जे विशेष कहिए चय तिनकरि हीन भई सो अपने नीचे लोभकी तृतीय संग्रह कृष्टिकी घात कृष्टिनिका को प्रमाण तितने विशेषनिका जेता द्रव्य होइ तितना द्रव्यकौं अपने घात द्रव्य ग्रहणकरि तहां लोभकी द्वितीय संग्रहको प्रथम कृष्टिविषै दीएं यह प्रथम कृष्टि तिस तृतीय संग्रहकी अन्त कृष्टितैं एक विशेषमात्र घटती हो है । ऐसें ही याकी द्वितीयादि घात कीएं पीछे अवशेष रहीं कृष्टिनिको अन्त कृष्टिपर्यंन्त कृष्टिनिविषै तितना तितना द्रव्य घात द्रव्य ग्रहणकरि दीएं लोभकी तृतीय द्वितीय संग्रहविषे एक गोपुच्छ भया सो इहां आयतें नीच तृतीय संग्रह ताकी घात कृष्टिनिका प्रमाणमात्र जे विशेष तिनका द्रव्य प्रमाण तो चोडा अर अपनी घात कीएं पीछे अवशेष रहीं कृष्टिनिका प्रमाणमात्र लंबा क्षेत्र कल्पना कीएं एक आयत चतुरस्र क्षेत्र भया । बहुरि ऐसे ही आयतें नीचें द्वितीय तृतीय संग्रह कृष्टि तिन दोऊनिकी घात कृष्टिनिका जेता प्रमाण तितना विशेष प्रमाण तो जुदा २ चौडा अर अपनी घात कीए पीछें अवशेष रहीं कृष्टिनिका प्रमाणमात्र लम्बा ऐसा दोय आयत चतुरस्र क्षेत्रप्रमाण द्रव्यकों अपनी घात द्रव्य ग्रहणकरि लोभको प्रथम संग्रहकी प्रथमादि कृष्टिनिविषै दीए लोभकी तीनों संग्रहकृष्टिना एक गोपुच्छ भया । ऐसें ही क्रमकरि अपने नीचली संग्रह कृष्टिनिकी घात कृष्टिना प्रमाणमात्र विशेषनिकरि तो जुदा जुदा चौडा अर अपनी घात कीए पीछे अवशेष रहीं कृष्टिनिका प्रमाणमात्र लम्बा ऐसें क्रमतें तीन च्यारि पांच छह सात आठ नव दश ग्यारह आयत चतुरस्र क्षेत्ररूप द्रव्य ताकौं अपने अपने घात द्रव्यतें ग्रहणकरि क्रमतें मायाकी तृतीय संग्रहादि क्रोधकी प्रथम संग्रह पर्यन्त संग्रह कृष्टिनिविषै दीए बारह संग्रह कृष्टिनिका एक गोपुच्छ हो है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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