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________________ स्वस्थान-परस्थान गोपुच्छके नाश होनेके कारणका विधान ४२९ बहुरि इन घात कृष्टिनिके जे परमाणू ताका नाम घात द्रव्य है, सो अपनी अपनी अन्त कृष्टिका द्रव्यकौं घात कृष्टिनिका प्रमाण करि गुण अन्त कृष्टिके नोचैं एक एक विशेष बंधता है। तातै विशेष अधिक कीए घात द्रव्यका प्रमाण आवै हैं ।। ५२३ ॥ विशेष प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता हुआ यह प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदक जीव जो बारह संग्रह कृष्टियाँ हैं उनमेंसे एक-एक कृष्टिसम्बन्धी उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर उपरिम अनन्त कृष्टियोंके असंख्यातवें भागमात्र कृष्टियोंका अपवर्तनाघातके द्वारा एक समयमें घात करता है। उसकी कृष्टियोंकी शक्तिको अपवर्तनाघातके द्वारा अधस्तन कृष्टिरूपसे परिणमाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इसी प्रकार द्वितीयादि समयोंमें भी अपवर्तनाघात जानना चाहिये । इतनी विशेषता हैं कि प्रथम समयमें विनाशको प्राप्त होनेवाली कृष्टियोंसे द्वितीयादि समयोंमें विनाशको प्राप्त होनेवाली कृष्टियाँ उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी हीन जानना चाहिये । णासेदि परट्ठाणियगोउच्छं अग्गकिट्टिधादादो। सट्ठाणियगोउच्छं संकमदव्वादु धादेदि ।। ५२४ ॥ नाशयति परस्थानकं गोपुच्छमग्रकृष्टिघातात् । स्वस्थानिकगोपुच्छं संक्रमद्रव्यात् धातयति ॥ ५२४ ॥ स० चं-अग्रकृष्टि घाततै तौ परस्थान गोपुच्छकौं नष्ट करै है अर संक्रम द्रव्य जो अन्य संग्रहरूप भया ऐसा पूर्वोक्त व्यय द्रव्य तातै स्वस्थान गोपुच्छकौं नष्ट करै है। कैसैं ? सो कहिए है विवक्षित एक संग्रहकृष्टिविर्षं जो अन्तर कृष्टिनिकै विशेष घटता क्रम पाइए सो इहां स्वस्थान गोपुच्छ कहिए है। बहुरि नीचली विवक्षित संग्रहकृष्टिकी अन्त कृष्टितै ऊपरिकी अन्य संग्रह कृष्टिकी आदि कृष्टिकै विशेष घटता क्रम पाइए है सो इहां परस्थान गोपुच्छ कहिए। तहां कृष्टिनिक होन अधिक द्रव्यका संक्रमण होनेतें चय घटता क्रम नष्ट भया तातें पूर्व स्वस्थान गोपुच्छ था ताका संक्रमण द्रव्यकरि नाश भया । बहुरि नीचली संग्रह कृष्टिको अन्त कृष्टि अर ऊपरली संग्रह कृष्टिकी आदि कृष्टि तिनिके बीचि कृष्टिनिका घात होनेतें एक विशेष घटता क्रम न रह्या तातै पूर्वं परस्थान गोपुच्छ था ताका घातद्रव्यकरि नाश भया ।। ५२४ ॥ आयादो वयमहियं हीणं सरिसं कहिं पि अण्णं च । तम्हा आयद्दव्वा ण होदि सट्ठाणगोउच्छं ॥ ५२५ ॥ आयतो व्ययमधिकं होनं सदृशं कुत्रापि अन्यच्च ।। तस्मादायद्रव्यान्न भवति स्वस्थानगोपुच्छम् ॥ ५२५ ॥ स. चं-इहां कोऊ कहै व्यय द्रव्य गया अर आय द्रव्य आया तातै व्यय द्रव्य करि स्वस्थान गोपुच्छका नाश कहया, आय द्रव्यकरि स्वस्थान गोपुच्छका होना कह्या, तहां कहिए है ___ कहीं संग्रहकृष्टिविर्षे आय द्रव्यतै व्यय द्रव्य अधिक है, कहीं हीन है, कहीं समान है, कहीं आय द्रव्य है, व्यय नाहीं, कहीं व्यय द्रव्य है आय द्रव्य नाहीं। तातै आय द्रव्यतै स्वस्थान गोपुच्छ न हो है ॥ ५२४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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