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________________ ४२२ क्षपणासार क्रोधस्य प्रथमसंग्रहकृष्टश्चाधस्तनानुभयस्थानानि । तत उदयस्थानानि उपरि पुनरनुभयस्थानानि ॥१६॥ उपरि उदयस्थानानि चत्वारि पदानि भवंति अधिकक्रमाणि । मध्ये उभयस्थानानि भवंति असंख्येयसंगुणितानि ॥५१७॥ स० चं०-- क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिकी अंतर कृष्टिनिविर्षे अधस्तन कहिए प्रथम द्वितीयादि नीचली जे अनुभय स्थान कहिए जिनका उदय अर बंध दोऊ नाही ऐसी नीचली कृष्टि तिनिका प्रमाण स्तोक है । ताकी संदृष्टि दोयका अंक २ । बहुरि तातै ताहीकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहां एक भागमात्र विशेषकरि अधिक तिनि अनुभय कृष्टिनिके ऊपरिबर्ती जे नीचली उययस्थाना कहिए जिनिका उदय पाइए बंध न पाइए ऐसी कृष्टि तिनिका प्रमाण है। ताकी संदृष्टि तीनका अंक ३ । बहुरि तातै ताहीकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग दीएं तहां एक भागमात्र विशेषकरि अधिक उपरितन कहिए अन्त उपान्त आदि ऊपरिकी अनुभयस्थाना कहिए बंध उदय रहित कृष्टि तिनका प्रमाण है। ताकी संदृष्टि च्यारिका अंक ४ । बहुरि तातै ताहीकों पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहां एक भागमात्र विशेषकरि अधिक तिनि कृष्टिनिके नीचैं पाइए ऐसी ऊपरली उदयस्थाना कहिए उदय सहित बंध रहित कृष्टि तिनका प्रमाण है। ताकी संदृष्टि सातका अंक ७, ऐसै च्यारि पद तो अधिक क्रम लीएं हैं बहुरि तातें असंख्यातगुणा वीचिकी उभयस्थाना कहिए जिनिका बंध भी पाइए अर उदय भी पाइए ऐसी कृष्टिनिका प्रमाण है। सोई कहिए है क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिविषै जो कृष्टिनिका प्रमाण ताकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहां बहुभागमात्र ती वीचिकी उभय कृष्टिनिका प्रमाण | बहरि अवशेष एक भाग रह्य ताको 'प्रक्षेपयोगोद्धृतमिश्रपिंडः' इत्यादि सूत्र विधानतै अंक संदृष्टि अपेक्षा दोय तीन च्यारि सात शलाकानिकौं जोडै सोलह भया ताका भाग देइ जो एक भागका प्रमाण आया ताकौं अपनी अपनी दोय आदि शलाकानिकरि गुण नीचली अनुभय कृष्टि आदिकनिका प्रमाण आवै है। ऐसे ही बारह संग्रह कृष्टिनिका वेदक कालका प्रथय समय विर्ष अल्पबहुत्व जानना ॥ ५१६-५१७ ॥ विशेष-क्रोध संज्वलनकी प्रथम संग्रहकृष्टिसम्बन्धी अधस्तन जघन्य कृष्टिसे लेकर असंख्यातवें भागप्रमाण जिन कृष्टियोंका बंध और उदय दोनों नहीं होते वे स्तोक हैं। उनसे उपरिम कृष्टिसे लेकर समस्त कृष्टि अध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण जिन कृष्टिओंका मात्र उदय होता है, बंध नहीं होता वे विशेष अधिक हैं। यहाँ विशेषका प्रमाण अधस्तन अध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तात्पर्य यह कि अधस्तन अध्वानमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो प्रमाण उपलब्ध है उतना विशेषका प्रमाण है। उसी प्रथम संग्रह कृष्टिकी ऊपर जिन कृतियोंका न बंध होता और न उदय होता वे सकल कृष्टि अध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर भी पूर्वोक्त उदय कृष्टियोंसे विशेष अधिक हैं। यहाँ भी विशेषका प्रमाण पहलेके समान जानना चाहिये । इनसे ऊपर जिन कृष्टियोंका मात्र उदय होता है बंध नहीं होता वे विशेष किटटीओ ण बज्झंति ण वेदिज्जति ताओ थोवाओ। " | मज्झे जाओ किट्टीओ बझंति च वेदिज्जति च ताओ असंखेज्जगुणाओ। क० चु०, पृ० ८०४-८०५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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