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________________ बादर कृष्टियोंकी रचनाका निर्देश ४०१ ओक्कट्टिददव्वस्स य पल्लासंखेज्जभागबहुभागो। बादरकिट्टिणिबद्धो फड्ढयगे सेसइगिभागो ॥४९३॥ अपकर्षितद्रव्यस्य च पल्यासंख्येयभागबहुभागः । बादरकृष्टिनिबद्धः स्पर्धके शेयकभन्गः ॥४९३॥ स० चं०-अपकर्षण कीया जो द्रव्य ताकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहां बहुभागमात्र द्रव्य तो बादर कृष्टिसम्बन्धी है । याकरि बादर कृष्टि निपजै है । अवशेष एक भागमात्र द्रव्य पूर्व-अपूर्व स्पर्धकनिविषै निक्षेपण करिए है ।।४९३॥ किट्टीयो इगिफङ्ढयवग्गणसंखाणणंतभागो दु । एक्केक्कम्हि कसाये तिग तिग अहवा अणंता वा ॥४९४।। कृष्टय एकस्पर्धकवर्गणासंख्यानामनंतभागस्तु । एकैकस्मिन् कषाये त्रिकत्रिकमथवा अनंता वा ॥४९४॥ स. चं०-एक एक अविभागप्रतिच्छेद बंधनेका क्रम लीएं प्रत्येक सिद्धराशिका अनंतवां भागमात्र परमाणूका समूहरूप ईंटनिकी पंक्तिके आकार जे वर्गणा, ते एक स्पर्धकविषै, एक गुणहानिविषै जेते स्पर्धक पाइए तिनतें अनंतगुणी पाईए है । सो ऐसैं एकस्पर्धकवि जो वर्गणानिका प्रमाण ताकौं वर्गणाशलाका कहिए। ताके अनंतवें भागमात्र सर्व कृष्टिनिका प्रमाण है । अनुभागका स्तोक बहुत अपेक्षा कृष्टिनिका विभाग करिए है। तहां एक एक कषायविषै संग्रह कृष्टि तीन-तीन हैं । बहुरि एक एक संग्रह कृष्टिविषै अंतर कृष्टि अनंत हैं। तहां नीचे ही नीचें लोभकी प्रथम संग्रह कृष्टि है तिसविषै अन्तर कृष्टि अनंत हैं । ताके ऊपरि लोभको द्वितीय संग्रह कृष्टि है। तहां अन्तर कृष्टि अनन्त हैं। ताके ऊपरि लोभको ततीय संग्रह कृष्टि है। तहां अन्तर कृष्टि अनंत हैं। ऐसे ही क्रोधको तृतीय संग्रह कृष्टि पर्यंत अवशेष नव संग्रह कृष्टि जाननी। तहां एक एक संग्रह कृष्टिविणे अनंत अनंत अन्तर कृष्टि जाननी। एक प्रकार बंधता गुणकाररूप जो अन्तर कृष्टि तिनके समूह ही का नाम संग्रह कृष्टि जानना ॥४९४॥ अकसायकसायाणं दव्वस्स विभंजणं जहा होई । किट्टिस्स तहेव हवे कोहो अकसायपडिबद्धं ॥४९५।। १. एदाओ सव्वाओ वि चउन्विहाओ किटीओ एयफद्दयवग्गणाणमणंतभागो पगणणादो। क० चु० पृ० ७९८ । २. एत्थ ताव कोहादिसंजलणकिटीओ पादेक्कं तीहि पविभागाहिं रचेदवाओ। एवं रचणाए कदाए एक्केक्कस्स कसायस्स तिण्णि तिण्णि संगहकिट्टीओ। जयध० पृ० ६९६५ । ३. लोहस्स जहणिया किट्टी थोवा । विदिया किट्टि अणंतगुणा । एवमणंतगुणाए सेढीए जाव पढमाए संगहकिट्टीए चरिमकिट्टि त्ति । तदो विदियाए संगहकिट्टीए जहणिया किट्टी अणंतगुणा। एत्थ गुणगारो बारसण्हं पि संगहकिट्टीणं सत्थाणगुणगारेहि अणंतगुणो । विदियाए संगहकिट्टीए सो चेव कमो जो पढमाए संगहकिट्टीए । तदो पुण विदियाए च तदियाए च संगहकिट्टीणमंतरं तारिसं चेव ।"क० चु० पृ०७९८-७९९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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