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________________ अश्वकर्णकरणके द्वितीयादिसमयसम्बन्धी प्ररूपणा नवस्पर्धकानां करणं प्रतिसमयं एवमेव नवरि तु । द्रव्यमसंख्येयगुणं स्पर्धकमानं असंख्यगुणहीनम् ||४७८|| स० चं० - ऐसें ही प्रथम समयवत् समय समय प्रति नवीन स्पर्धकनिकों करें है । विशेष इतना - तहां द्रव्य तौ क्रमतें असंख्यातगुणा बंधता अपकर्षण करिए है । अर नवीन स्पर्धक कीएं तिनका प्रमाण असंख्यातगुणा घटता हो है । सोई कहिए है- ३९३ अश्वकर्णकरणका द्वितीय समयविषै जो प्रथम समयविषै पूर्व स्पर्धकनिके द्रव्यको अपकर्षण भागहारका भाग देइ एक भागमात्र द्रव्य अपकर्षण किया था तातें असंख्यातगुणा द्रव्यकों, पूर्वस्पर्धक अर प्रथम समयविषै कीए अपूर्वस्पर्धक तिनका जो द्रव्य था तातैं अपकर्षण करि, तिस द्रव्यका असंख्यातवां भागमात्र द्रव्यकरि तो इहां नवीन अपूर्व स्पर्धक करिए है । ते प्रथम समयविषै कीए अपूर्व स्पर्धक तिनकी प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके नीचे घटता अनुभाग लीएं करिए है । तिस प्रथम वर्गणातें एक एक वर्गणा प्रसि एक एक विशेषमात्र द्रव्यकी अधिकता द्वितीय समयसंबंधी नवीन अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणापर्यंत जाननी । तहां पूर्वोक्त प्रकार समपट्टिका धन धन जोडें जेता द्रव्य होइ तितने द्रव्यकरि तौ इहां नवीन स्पर्धक बनेँ । बहुरि अपकर्षण कया द्रव्य विषै इतना द्रव्य घटाएं जो अवशेष द्रव्य रह्या ताकौं द्वितीय समयविषै कीने नवीन अपूर्व स्पर्धक अर प्रथम समयविषै कीने अपूर्वं स्पर्धक अर पूर्व स्पर्धक ति का एक गोपुच्छ भया तिसविष चय घटता क्रमकरि सर्वत्र देना । बहुरि प्रथम समयविषै कीए अपूर्व स्पर्धक तिनिके प्रमाणतें द्वितीय समयविषै कीए नवीन अपूर्वं स्पर्धक तिनका प्रमाण असंख्यातगुणा घटता जानना । बहुरि अश्वकर्णकरणका तृतीय समयविषै जो द्वित्तीय समयविषै द्रव्य अपकर्षण कीया ता असंख्यातगुणा द्रव्य पूर्व स्पर्धक अर प्रथम द्वितीय समयविषै कीए अपूर्वं स्पर्धक तिनके द्रव्यतें अपकर्षण करिए है ताके असंख्यातवां भागमात्र द्रव्यकरि तो द्वितीय समयविषै कीए स्पर्धक तिनके नीचें इहां नवीन अपूर्व स्पर्धक करिए है अर अवशेष द्रव्यकौं तृतीय द्वित्तीय प्रथम समयसंबंधी अपूर्व स्पर्धकनिका अर पूर्वं स्पर्धकनिका एक गोपुच्छ भया ताविषै क्रमकरि निक्षेपण है । इहां द्वितीय समयविषै कीए नवीन अपूर्वं स्पर्धकनिका प्रमाणतें तृतीय समयविषै की नवीन अपूर्व स्पर्धकनिका प्रमाण असंख्यातगुणा घटता जानना । ऐसें ही अपूर्व स्पर्धककरण काका अंत समय पर्यंत समय समय प्रति असंख्यातगुणा द्रव्यकों अपकर्षण करै है अर नवीन अपूर्व स्पर्धक नीचें नीचे हो हैं तिनका प्रमाण असंख्यातगुणा घटता हो है । अन्य विशेष जैसे प्रथम समयविषै कह्या है तैसें जानना || ४७८ || Jain Education International विशेष - प्रत्येक समयमें जो नये अपूर्व स्पर्धक किये जाते हैं वे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हीन होते हैं । इतने हीन कैसे होते हैं इसका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि वर्गमूलके पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण गुणकार है, इससे दूसरे समय में जो अपूर्व स्पर्धक किये जाते हैं उन्हें गुणित करनेपर पहले समय में किये जानेवाले अपूर्व स्पर्धकों का प्रमाण प्राप्त होता है, अतः सिद्ध हुआ कि प्रथम समयमें किये जानेवाले अपूर्वं स्पर्धकोंसे दूसरे समय में किये जानेवाले अपूर्व स्पर्धक असंख्यातगुणे हीन होते है । यहाँ पल्योपमके असंख्यातवें भागसे पल्योपमके वर्गमूलका असंख्यातवाँ भाग लिया गया है । इसी प्रकार आगे भी तृतीयादि समयोंमें किये जानेवाले अपूर्व ५० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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