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________________ अश्वकर्णकरणके प्रथम समयसम्बन्धी प्ररूपणा ३८७ समस्त विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त बहुत खण्ड पूर्व स्पर्धकोंमें पतित होते हैं। इसी प्रकार शेष समस्त खण्डोंको भी पूर्व-अपूर्व स्पर्धाकोंमें विभाजित कर देना चाहिये। इस प्रकार देनेपर पूर्व स्पर्धाकोंकी आदि वर्गणामें प्राप्त हुए सभी विकल खण्डोंको ग्रहणकर एक सकलखण्ड प्रमाण नहीं होता है, क्योंकि कुछ कम एक सकल खंडप्रमाण ही वह उपलब्ध होता है। अब कितना प्रमाणरूप द्रव्य एक सकल खण्डप्रमाणको प्राप्त है ऐसी पृच्छा होनेपर समाधान यह है कि अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण विकल खण्ड यदि हैं तो एक सकल खण्डका प्रमाण प्राप्त होता है। परन्तु इतने प्रमाणरूप द्रब्य है नहीं, क्योंकि अधस्तन भागहारसे उपरिम खण्डसलाकाका गुणकार अपकर्षण-उत्कर्षणप्रमाण अंकोंसे हीनरूप देखा जाता है। इसलिये पूर्व स्पर्धकोंकी आदि वर्गणामें कुछ कम एक खंड प्रमाण ही द्रव्य प्राप्त हुआ यह सिद्ध होता है। अपर्व स्पर्धकोंसे कियत्प्रमाण द्रव्य प्राप्त हआ ऐसी पच्छा होनेपर कहते हैं कि एक कम अपकर्षणउत्कर्षणभागहारप्रमाण सकल खंडप्रमाण और कुछ कम एक खंडप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है। इसलिए अपूर्व स्पर्धाककी अन्तिम वर्गणामें निक्षिप्त हुए प्रदेशपुजसे पूर्व स्पर्धककी आदि वर्गणामें निक्षिप्त हुआ प्रदेशपुंज असंख्यातगुणा हीन है। यहाँ गुणकार कितना है ऐसी पृच्छा होनेपर कहते हैं कि साधिक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारप्रमाण गुणकार है। इस कारणसे प्रथम पूर्व स्पर्धकको आदि वर्गणामें असंख्यातगुणे होन प्रदेशपुजको निक्षिप्तकर उससे पूर्व स्पर्धककी दूसरी वर्गणामें अनन्तवें भागप्रमाण विशेष होन देता है। तथा इसी प्रकार पूर्व स्पर्धकोंकी शेष समस्त वर्गणाओंमें भी अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा विशेष होन, विशेष हीन ही द्रव्य देता हैं । कोहादीणमपुव्वं जेटुं सरिसं तु अवरमसरित्थं । लोहादिआदिवग्गणअविभागा होति अहियकमा ॥४७१।। क्रोधादीनामपूर्व ज्येष्ठं सदृशं तु अवरमसदृशं । लोभादिआदिवर्गणाअविभागा भवंति अधिकक्रमाः ॥४७१॥ स० चं-क्रोधादिके चारयो कषायनिका अपूर्व स्पर्धकनिकी उत्कृष्ट वर्गणा जो अंत स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सो अनुभागके अविभागप्रतिच्छेदनिके प्रमाणकी अपेक्षा समान हैं। बहुरि जघन्य वर्गणा जो प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सो असमान है। तहां लोभादिककी जघन्य वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद क्रमकरि अधिक हैं। लोभकी जघन्य वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद तौ स्तोक हैं, तारौं मायाकीके अधिक है तातै मानकीके अधिक हैं तातै क्रोधकीके अधिक हैं ।।४७१।। सगसगफड्ढयएहिं सगजेठे भाजिदे सगीआदि । मज्झे वि अणंताओ वग्गणगाओ समाणाओं ॥४७२।। स्वकस्वकस्पर्धकैः स्वकज्येष्ठे भाजिते स्वकीयादि । मध्येऽपि अनंता वर्गणाः समानाः ॥४७२।। १. तेसिं चेव पढमसमए णिव्वत्तिदाणमपुवफद्दयाण लोभस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं थोवं । मायाए आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । माणस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । कोहस्स आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदग्गं विसेसाहियं । एवं चदुण्हं पि कसायाणं जाणि अपुव्वफद्दयाणि तत्थ चरिमस्स अपुन्वफद्दयस्स आदिवग्गणाए अविभागपहिच्छेदग्गं चदुण्हं पि कसायाणं तुल्लमणंतगुणं । क० चु० पृ० ७९१-७९२। २. जयघ० प्रे० पृ०६९२४-६९२८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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