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________________ ३८२ क्षेपणासार इतना द्रव्य तौ जुदा ही अपूर्व स्पर्धकनिविषै दीया सो जैसे गऊका पूंछ क्रमतें मोटाईकी अपेक्षा घटता हो है तैसैं इहां चय घटता क्रम होनेतें अपूर्व स्पर्धकनिका एक गोपुच्छ भया । बहुरि ताके ऊपर पूर्व स्पर्धकनिकी भी रचना चय घटता क्रम लीएं हैं । तातें पूर्व अपूर्व स्पर्धकनिका मिलकर भी एक गोपुच्छ हो है सो ऐसें एक गोपुच्छ होनेकरि तिस अपकर्षण किया द्रव्यविषै पूर्वोक्त द्रव्य घटाए जो अवशेष द्रव्य रह्या सो पूर्वं स्पर्धक वा अपूर्व स्पर्धकनिविषै सर्वत्र विभाग करि देना । तहां अपूर्व स्पर्धककरि वर्गणाप्रमाण एक शलाका स्थापि ताका भाग अपूर्व स्पर्धकवर्गणा प्रमाणकौं एं अपूर्व स्पर्धकसम्बन्धी तो एक शलाका भई अर ताहीका भाग ड्योढ गुणहानि गुणित पूर्व स्पर्धक वर्गणाप्रमाणको दीएं असंख्यातगुणा अपकर्षण भागहारका ड्योढगुणा करिए इतनी पूर्व स्पर्धककी वर्गशलाका भई । इहां पूर्व स्पर्धककी एक गुणहानिविषै जो स्पर्धकनिका प्रमाण है ताकौं असंख्यातगुणा अपकर्षण भागहारका भाग दीएं अपूर्व स्पर्धकनिका प्रमाण हो है, तातें असंख्यातगुणा अपकर्षण भागहार कहया । अर पूर्व स्पर्धकनिविषै नाना गुणहानि अनंती है तथापि द्रव्यकी अपेक्षा ड्योढ गुणहानिगुणित वर्गणामात्र ही है, तातें ड्योढका गुणकार कीया है ऐसा जानना । सो पूर्व अपूर्ण स्पर्धकनिकी शलाकानिको मिलाय ताका भाग तिस अपकर्षण कीया द्रव्यविषै जो अवशेष द्रव्य रहा था ताक दीएं जो प्रमाण आया ताकौं पूर्ण स्पर्धकसम्बन्धी बहु शलाकाकरि गुणै पूर्ण स्पर्धक निविषै देने योग्य द्रव्यका विभाग आगे है अर तिसही अपूर्ण स्पर्धकसम्बन्धी एक शलाकाकरि गुण अपूर्ण स्पर्धकनिविषै देने योग्य द्रव्यका विभाग आवै है सो इस अपूर्ण स्पर्धकका विभागरूप द्रव्य अर जिस द्रव्यकरि पूर्वै अपूर्ण स्पर्धककी रचना करनी कही थी ऐसें चयधन सहित समपट्टिकारूप धन इन दोऊनिकों मिलाए अपूर्ण स्पर्धकसम्बन्धी सर्व द्रव्य भया । सो 'अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे 'इत्यादि सूत्रकरि ताकौं अपूर्ण स्पर्धकवर्गणा प्रमाण जो गच्छ ताका भाग दी मध्य धन होइ । याकौं एक घाटि जो गच्छ ताका आधा प्रमाण करि हीन जो दोगुणहानि ताका भाग दीए विशेष होइ सो एक घाटि गच्छका आधा जो प्रमाण होइ तितने विशेष तिस मध्य धनविषै जोडें जो होइ तितना द्रव्य अपूर्ण स्पर्धकनिकी आदि वर्गणाविषै दीजिए है, तातै एक-एक विशेष घटता क्रम लीए द्वितीयादि वर्गणानिविषै क्रमतें दीजिए है । ऐसें एक घाटि गच्छप्रमाण चयनिकरि हीन द्रव्य अंत वर्गणाविषै दीजिए है । ऐसें तौ अपूर्ण स्पर्धक नवीन कीए । बहुरि पूर्व स्पर्धकनिकी रचना तो पूर्वी थी ही, अब इनविषै इहां पूर्वोक्त बहुशलाकानिका जो विभागरूप द्रव्य कह्या था सो देना । सो 'दिवड्ढगुणहाणिभाजिदे पढमा' इत्यादि सूत्रकरि तिस पूर्व स्पर्धकसम्बन्धी विभागरूप द्रव्यकौं साधिक ड्योढ गुणहानिका भाग दीएं जेता प्रमाण होइ तितना द्रव्य तो पूर्व स्पर्धकनिकी आदि वर्गणाविषै निरूपण करिए है । बहुरि याकों दो हानका भाग दीएँ विशेषका प्रमाण होइ सो ऊपरि द्वितीयादि वर्गणानिविषै प्रथम गुणहानिपर्यंत एक-एक विशेष घटता क्रम लीए अर गुणहानि गृणहानि प्रति आधा-आधा क्रम लीए द्रव्य निक्षेपण करिए है || ४६९|| विशेष - यहाँ एक गोपुच्छाकार रूपसे अपूर्ण और पूर्ण स्पर्धकोंकी रचना कैसे होती है इसका स्पष्टीकरण करते हुए दोनों प्रकारके स्पर्धकों में चयक्रमसे उत्तरोत्तर हीन जो द्रव्य प्राप्त होता है उसे अलग करके दो प्रकारके स्पर्धकोंकी प्रत्येक वर्गणामें समानरूपसे कितना द्रव्य प्राप्त होता है इसका निर्देश करके पुनः जिस क्रमसे विशेष (उत्तर) द्रव्यका उत्तरोत्तर विभाजन होकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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