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________________ पूर्व-अपर्वस्पधकोंमें द्रव्यके विभागका निर्देश ३८१ स० चं०-अपकर्षण कीया जो द्रव्य तिसविर्ष कितने इक द्रव्य तो विशेष सहित समखण्डरूप अपूर्व स्पर्धकनिवि निक्षेपणकरि अवशेष धन हैं सो ऐसैं एक गोपुच्छकरि उभयत्र कहिए पूर्व अपूर्व स्पर्धकनिविर्षे निक्षेपण करना सिद्ध भया । सोई कहिए है अपकर्षण कीया जो द्रव्य तिसविर्ष केता इक द्रव्यकरि तौ अपूर्व स्पर्धक पूर्वे न थे ते नवीन सद्भावरूप करिए है अर अवशेष द्रव्य रहे सो पूर्व स्पर्धक पूर्वं थे अर अपूर्व स्पर्धक न भए तिनविषै निक्षेपण करिए है। तहां अपूर्व स्पर्धक केते द्रव्यकरि करिए है ? सो कहिए है पूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां एक मागमात्र द्रव्य ग्रहि अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाविषै तिस द्रव्यकरि केते इक वर्ग करिए है । बहुरि ऐसे ही दोय घाटि अपकर्षण भागमात्र पूर्व स्पर्धककी द्वितीयादि वर्गणानिके परमाणूनिकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां एक भागमात्र द्रव्यकों ग्रहि अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाविषै निक्षेपण करिए है। इनकौं मिलाएं वर्गणाके द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग दीएं तहां एक भाग विना बहुभागमात्र द्रव्य भया सो वर्गणाका द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देनेतै अर एक अपकर्षण भागहारमात्र वर्गणाका द्रव्य ग्रहया तातै एक घाटि अपकर्षण भागहारकरि गुणनेते यह द्रव्य पूर्व स्पर्धककी वर्गणाका द्रव्यके समान हो है, जातें पूर्व स्पर्धकनिकी सर्व वर्गणानिके द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां एक भागमात्र द्रव्य अपकर्षण कीया तब तहां बहुभागमात्र द्रव्य रह्या सो इतना यहु द्रव्य भया, सो इतने द्रव्यकरि तो अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणा भई । बहुरि ताके ऊपरि इतने इतने द्रव्य ही करि अपूर्व स्पर्धाककी अन्य द्वितीयादि वर्गणा भई सो अपूर्व स्पर्धकनिका जो प्रमाण अर एक स्पर्धकनिविषै जो वर्गणानिका प्रमाण इन दोऊनिकौं परस्पर गुणें जेता प्रमाण होइ तितनी अपूर्व स्पर्धकनिकी वर्गणा हैं सो एक वर्गणाका पूर्वोक्त प्रमाण द्रव्य होइ तौ इतनी वर्गणाका केता द्रव्य होइ ऐस त्रैराशिककरि पूर्वोक्त द्रव्यकौं अपूर्व स्पर्धकको वर्गणानिका प्रमाणकरि गुणें अपूर्व स्पर्धाककी वर्गणानिके आदि धनका प्रमाण हो हैं। सो यह तो पूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके सदृश अपूर्व स्पर्धकनिकी सर्व वर्गणानिकी समान अपेक्षाकरि समपट्टिका द्रव्य भया। अब इनविषै जो विशेष कहिए चय ते जैसैं बंधती पाइए है सो कहिए है पूर्व स्पर्धकनिवि गुणहानि गुणहानिप्रति उपरितै नीचे दूणा दूणा विशेषका प्रमाण है सो इहां पूर्व स्पर्धककी प्रथम गुणहानिके नीचे अपूर्व स्पर्धकनिकी रचना भई, तातै पूर्व स्पर्धकनिकी प्रथम गुणहानिवि जो विशेषका प्रमाण पूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाकौं दो गुणहानिका भाग दीएं हो है, तातै दूणां अपूर्व स्पर्धकनिविर्षे विशेषका प्रमाण जानना सो ऐसा एक विशेष तो अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके नीचें भई जो अंत अपूर्व स्पर्धाकको अंत वर्गणा तीहिविर्षे अधिक हो है । बहुरि ताके नीचें द्विचरम वर्गणाविषै दोय विशेष अधिक हो हैं । ऐसै क्रमतें एक एक विशेष अधिक होइ, अपूर्व स्पर्धकनिकी वर्गंणाका जेता प्रमाण तितने विशेष प्रथम अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणाविर्षे हो है सो इहां आदि एक उत्तर एक गच्छ अपूर्व स्पर्धक वर्गणामात्र स्थापि “सैकपदाहतपददले" इत्यादि सूत्रकरि जेता संकलनधन होइ तितना उत्तर धन जानना । सो पूर्वोक्त आदि धन अर इस उत्तर धनकौं जोडै जो प्रमाण होइ तितना द्रव्यकौं तिस अपकर्षण कीया द्रव्यतै ग्रहि करि ऐसें अपूर्व स्पर्धकनिकी रचना करिए है। पूर्व स्पर्धक तो पर्व थे, तातै तिनका सद्भाव होनेकौं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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