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________________ ३७८ क्षपणासार गुहान ताका भाग दीएं विशेषका प्रमाण आवे है । वर्गणा वर्गणा प्रति जितनी परमाणू घटैं ताका नाम इहां विशेष जानना सो विशेषकौं दो गुणहानिकरि गुणें प्रथम वर्गणा होइ । बहुरि एक परमाणु विषै जेते अविभागप्रतिच्छेद पाइए तिनके समूहका नाम वर्ग है, याकरि प्रथम वर्गणrat गुण प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदनिका प्रमाण हो है । बहुरि यात दूणे द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणा के अविभागप्रतिच्छेद हैं, यातें द्वितीय भाग अधिक तृतीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणा के हैं, यातें तृतीय भाग अधिक चतुर्थ स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके, ऐसैं क्रमतें उत्कृष्ट संख्यातवां भाग अधिक पर्यंत तो संख्यातभागवृद्धि, ताके ऊपरि उत्कृष्ट असंख्यातवां भाग अधिक पर्यंत असंख्यात भागवृद्धि ताके ऊपरि अंतपर्यंत अनंत भागवृद्धि हो है । तहां द्विचरम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदनिकौं एक घाटि अपूर्व स्पर्धकप्रमाणका भाग देइ तहां एक भाग तामें जोडें चरम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदनिका प्रमाण हो है । सो प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदनितें द्वितीय तृतीयादि स्पर्धकनिकी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद क्रमतें दोय गुणा तिगुणा आदि होइ अंत स्पर्धककी प्रथम वर्गणाविषै अपूर्व स्पर्धकप्रमाणकरि गुणित अविभागप्रतिच्छेद हो हैं । सो यहु स्थूलपने कथन है । सूक्ष्मपनेकरि जेते विशेष धरै तिन विशेषनिके जेते वर्ग होंइ तिनके अविभागप्रतिच्छेद घटावनेकौं द्वितीयादि स्पर्धकनिकी प्रथम वर्गणानिका स्थूलपने जो अविभागप्रतिच्छेदनिका प्रमाण ह्या ता किंचित् न्यूनपना जानना । तहां प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणात द्वितीय वर्गणाविषै एक विशेष, तृतीय वर्गणाविषै दोय विशेष, चतुर्थं वर्गणाविषे तीन विशेष ऐसें क्रमतें विशेष घाटि घाटि पाइए है, तातें सिद्धराशिके अनंतवे भागि वा अभव्य राशितें अनंतगुणी जो एक स्पर्धक वर्गणाशलाका तितने विशेष प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणातें द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाविषै घटते जानने । सो इन विशेषनिके परमाणूनिका प्रमाणकौं दूणा जघन्य वर्गकरि गुणें जो प्रमाण हो तितना द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाविषै ऋण जानना । बहुरि तृतीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणानिविषै प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणातें एक स्पर्धक वर्गणा शलाकामात्र विशेष घटें तिनके परमाणूनिका प्रमाणको तिगुणा जघन्य वर्गकरि गुणै तहां ऋण हो है । ऐसें क्रमतें अंत स्पर्धककी प्रथम वर्गणाविषै एक घाटि अपूर्व स्पर्धक प्रमाणकरि गुणित एक स्पर्धक वर्गणा शलाकामात्र विशेष घर्टें तिनके परमाणूनिका प्रमाणकौं अपूर्व स्पर्धकका प्रमाणकरि गुणित जो जघन्य वर्ग ताकरि गुण तहां ऋण हो है । ऐसें का अपना-अपना ऋण ताकों पूर्वोक्त अपना-अपना स्थूल प्रमाणमैं घटाएँ सूक्ष्म तारतम्यरूप अविभागप्रतिच्छेदनिका प्रमाण आवे है । ऐसें अव्यवधान कहिए निरंतरपन स्पर्धकनिका अल्पबहुत्व कह्या । बहुरि व्यवधान कहिए सांतर तीहिकरि कहिए है प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणातैं अंत स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद अनंतगुणे हैं । किचित् ऊन अपूर्व स्पर्धक प्रमाणकरि गुणित जानने । ऐसें क्रोध मान माया लोभके अपूर्वं स्पर्धकनिविषै अनुभाग के अविभागप्रतिच्छेदनिका अल्पबहुत्वका व्याख्यान समान जानना ||४६७॥ विशेष - प्रथम देशघाति स्पर्धक के नीचे अनन्तवें भाग में जो अन्य अपूर्व स्पर्धक किये जाते हैं वे कितने होते हैं इसका समाधान करते हुए यहाँ बतलाया है कि पूर्व स्पर्धकोंमें जो यथाविभाग डेढ़ गुणहानिमात्र समयप्रबद्ध सत्त्वरूपसे अवस्थित हैं इनमें अपकर्षण- उत्कर्षण भागहारका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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