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________________ ३७७ स्पर्धकोंमें अनुभागरचनाका निर्देश विशेष-चारों संज्वलनोंके पूर्व स्पर्धकोंसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रदेशपुंजके असंख्यातवें भागको ग्रहण कर प्रथम देशघाति स्पर्धकके नीचे अनन्तवें भागमें अन्य अपूर्व स्पर्धकोंको रचता है। अश्वकर्णकरणके पहले संज्वलनके देशघाति जघन्य स्पर्धकका जितना अनुभाग होता है, इस समय उससे भी अनन्तवें भागप्रमाण अनुभाग स्पर्धकोंको रचता है, इसलिये इनकी अपूर्व स्पर्धक संज्ञा है। गणणादेयपदेसगगुणहाणिट्ठाणफड्ढयाणं तु । होदि असंखेज्जदिमं अवरादु वरं अणंतगुणं ।।४६७।। गणनादेकप्रदेशकगुणहानिस्थानस्पर्धकानां तु । भवति असंख्येयं अवरतो वरमनंतगुणं ॥४६७॥ स० चं०-सो अनंत कैसा है ? सो कहिए है—गणनाकरिकै प्रदेशगुणहानि कहिए अनुभाग रचना विषै जे वर्गणा तिनविषै प्रदेश जे परमाणु तिनका प्रमाण एक-एक विशेष घटतें संतँ जहाँ आधा होइ तहांतें पहले एक गुणहानि कहिए। तिस एक गुणहानिवि स्पर्धकनिका प्रमाण अभव्य राशितै अनंतगुणा वा सिद्धराशिके अनंतवे भागमात्र है । ताकी अपकर्षणभागहारतें असंख्यातगुणा जो भागहार ताका भाग दीएं एक भागमात्र अपूर्व स्पर्धकनिका प्रमाण अनन्त संख्यातमात्र जानना। तहां जघन्य अपूर्व स्पर्धकतै उत्कृष्ट अपूर्व स्पर्धक विषै अनुभागके अविभागप्रतिच्छेद अनंतगुणे जानना । सो अनुभागके अल्पबहुत्वका विशेष इहां कहिए है अपूर्व स्पर्धकनिविषै प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद जीवराशि” अनंतगुणे हैं, तथापि औरनि” स्तोक हैं । बहुरि याकौं अनंतका भाग देइ तहां बहुभाग तिसहीमैं मिलाएं द्वितीय स्पर्धकको प्रथम वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद हो हैं । ऐसे ही अंत स्पर्धकपर्यंत क्रम जानना। सो यहु अल्पबहुत्व वर्गणानिविषै पाइए है। जे सर्व परमाणूंरूप वर्ग तिन सवनिकै अविभागप्रतिच्छेद मिलाय करि कहा है। बहुरि एक-एक वर्गकी अपेक्षा प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणात द्वितीय तृतीयादि स्पर्धकनिकी प्रथम वर्गणाविर्षे दुणे तिगुणे आदि अविभागप्रतिच्छेद जानने । जाते आदि वर्गतै आदि वर्गके अविभागप्रतिच्छेदका प्रमाण जेथवां स्पर्धक होइ तितनागुणा ही हो है । कषायप्राभृत द्वितीय नाम महाधवलविर भी ऐसे ही कया है। सोई विशेष करि कहिए है स्थितिसम्बन्धी असंख्यातप्रमाण लीएँ जो स्पर्धकगुणहानि ताकरि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण अपना-अपना द्रव्य स्थापि ताकौं अनुभागसम्बन्धी अनंत प्रमाण लीए जो किंचिदून ड्योढ गुणहावि ताका भाग दीएँ प्रथम वर्गणाविषै परमाणूनिका प्रमाण आवै। एक गुणहानिवि जेता स्पर्धकनिका प्रमाण सो एक गुणहानि स्पर्धकशलाका कहिए है। एक स्पर्धकविर्षे जेता वर्गणानिका प्रमाण सो एक स्पर्धकवर्गणा शलाका कहिए। इन दोऊनिकौं परस्पर गुण अनुभागसम्बन्धी गुणहानि आयामका प्रमाण होइ। बहुरि प्रथम वर्गणाकौं गुणहानितै दूणा प्रमाण लीएं जो दो १. ताणि पगणणादो अणंताणि पदेसगुणहाणिढाणंतरफद्दयाणमसंखेज्जदिभागो एत्तियमेत्ताणि ताणि अपुन्वफट्याणि । क० चु० पृ० ७८९ । २. यहाँ महाधवल पदसे जयधवल विवक्षित है। ४८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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