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________________ ३७४ क्षपणासार प्रमाण नव तिनकौं अधिक कीएं लोभकांडकका प्रमाण पाँचसै उण्णोस ५१९ आव है। अवशेष एक भागमात्र ५१२ दोय स्पर्धकप्रमाण लोभके अवशेष अनुभागसत्त्वका प्रमाण हो है। ऐसे क्रोध ४। ४ । ४ । ४ मान माया लोभ कांडकका प्रमाण तो विशेष अधिक क्रम लीएँ हो है। अर अवशेष रया अनुभागका प्रमाण अनन्तगुणा क्रम लीएँ हो है । तिनकी रचना ऐसी नाम | क्रोध मान माया । लोभ । पूर्व अनुभाग ५१५ । ५१२ । ५१८ कांडक अनुभाग । ३८७ ४८० | ५१० ५१९ ।। अवशेष अनुभाग । १२८ ३२८ । २ इहां कांडक अनुभाग अर अवशेष अनुभागके बीचि ड्योढी लीक करी है सो हीनाधिक अनुभाग प्रगट करनेके अथि जानना । ऐसें क्रोधादिकविर्षे घटता क्रम लीए अनुभाग प्रगट करना सो अश्वकर्णकरण है, ताका वर्णन कीया । अब अश्वकर्णकरण अवस्थाविषे ही भए अरपूर्वं संसार अवस्थाविषै संभवते थे जे पूर्व स्पर्घक तिनतै अनंतगुणा घटता अनुभाग लीएं असे जे अपूर्व स्पर्धक तिनका स्वरूप कहिए है । सो पहिले पूर्व स्पर्धकनिका स्वरूप जाने बिना अपूर्व स्पर्धकनिका ज्ञान न होइ तात इहाँ पूर्व स्पर्धाकनिका किछू स्वरूप कहिए है सर्व कर्म परमाणविष जाविषै अनुभागके थोरे अविभागप्रतिच्छेद पाइए ऐसी जो परमाणू सो जघन्य वर्ग कहिए। ऐसी ऐसी समान परमाणूनिका पुंज ताका नाम जघन्य वर्गणा है। बहुरि जघन्य वर्गणातै एक अविभागप्रतिच्छेद जिनमें अधिक पाइए ऐसे एक एक वर्गणा परमाणू तिनका पुजकों द्वितीय वर्गणा कहिए । ऐसें क्रमतें एक एक अविभागप्रतिच्छेदकरि बंधती जे वर्ग कहिए वर्गका पुजरूप एक एक वर्गणा यावत् होइ तावत् पयंत जेती वर्गणा भई तिन सर्व वर्गणानिका पुजकौं जघन्य स्पर्धक कहिए। बहुरि ताके अनंतरि जघन्य वर्गतै दूणा अविभागप्रतिच्छेदयुक्त जे वर्ग तिनका समूहरूप द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणा हो है । बहुरि पूर्ववत् यात एक एक अविभागप्रतिच्छेद बंधती लीएं वर्गनिका पुजरूप ताकी द्वितीयादि वर्गणा हो है। बहुरि ऐसे ही जघन्य वर्गतै तिगुणा चौगुणा आदि जेथवां स्पर्धक होइ तितना गुणा अविभागप्रतिच्छेद यक्त वर्गनिका समहरूप जो वर्गणा होइ सो तो तृतीय चतर्थ आदि स्पर्धकनिकी प्रथम वर्गणा जाननी। अर ऊपरि एक एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक क्रम लीएं वर्गनिका समूहरूप अपनी अपनी द्वितीयादि वर्गणा जाननी । इहां सर्व कर्म परमाणूनिका प्रमाणकौं किंचित् अधिक ड्योढगुणहानिका भाग दीएं प्रथम वर्गणाके वर्गनिका प्रमाण आवे है। याकौं दोगुणहानिका भाग दीएं विशेषका प्रमाण आवै है सो एक विशेषकरि घटता द्वितीयादि वर्गणानिविषै वर्गनिका प्रमाण हो है। ऐसे प्रथम गुणहानिविणे क्रम जानना । बहुरि प्रथम गुणहानि” द्वितीयादि गुणहानिनिविषै आधा आधा प्रमाण लीएं वर्गणाके वर्गनिका अर विशेषका प्रमाण जानना। ऐसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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