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________________ उतरते समय अधःप्रवृत्त में संक्रमविषयक व्यवस्था ३०५ स० चं-तहाँ प्रमत्त वा अप्रमत्त गुणस्थानविर्ष स्वस्थान संयत होइ वृद्धि हानि रहित अवस्थित गुणश्रेणि आयाम करै है । बहुरि सोई जीव जो विरताविरत पंचम गुणस्थानकौं सन्मुख होइ तो संक्लेशताकरि पूर्वं गुणश्रेणि आयामतें संख्यातगुणा बँधता गुणश्रोणि आयाम करै है। अर पलटिकरि उपशम वा क्षपकश्रेणी चढनेकौं सन्मुख होइ तो विशुद्धताकरि तिस गुणश्रेणि आयामत संख्यातगुणा घटता गुणश्रेणि आयाम करै है। ऐसैं स्वस्थान संयमीकै गुणश्रेणिकी वृद्धि हानि अवस्थितरूप तीन स्थान कहे ॥३४५।। अथावतारकाप्रमत्तस्याधःप्रवृत्तकरणे संक्रमसंभवविशेष प्रदर्शयति---- करणे अधापवत्ते अधापवत्तो दु संकमो जादो। विज्झादमबंधाणे गट्ठो गुणसंकमो तत्थ ।।३४६।। करणे अधःप्रवत्ते अधःप्रवत्तस्त संक्रमो जातः । विध्यातमबन्धने नष्टो गुणसंक्रमस्तत्र ॥३४६॥ सं० टी०-अवतारकाघःप्रवृत्तकरणे बन्धवतामथाप्रवृत्तसंक्रमो जातः । अबन्धानां विध्यातसंक्रमः । तत्र गुणसंक्रमो विनष्ट एव ॥३४६॥ स० चं०-उतरनेवाला अधःप्रवृत्त करणविष जिनि प्रकृतिनिका बंध पाइए तिनकै तौ अथाप्रवृत्त नामा संक्रम भया, इनका अन्य प्रकृतिविषै संक्रम होनेवि अधःप्रवृत्त नामा भागहार संभवै है । बहुरि जिनका बन्ध न पाइए तिनकै विध्यातसंक्रमण पाइए है । इनका अन्य प्रकृतिविषै संक्रम होनेवि विध्यात नामा भागहार संभवै है अर गुणसंक्रमका नाश ही भया । इनका स्वरूप पूर्वं कया है सो जानना ॥३४६॥ . अथ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकालप्रमाणं गाथाद्वयमाह -- चडणोदरकालादो पुव्वादो पुव्वगो त्ति संखगुणं । कालं अधापवत्तं पालदि सो उवसमं सम्म' ॥३४७॥ चटनावतरकालतोऽपूर्वात् अपूर्वक इति संख्यगुणम् । कालं अधःप्रवृत्तं पालयति स उपशमं सम्यम् ॥३४७॥ सं० टी०-द्वितीयोपशमसम्यक्त्वेनोपशमकश्रेण्यामारूढस्यापूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य ततोऽवतीर्णापूर्वकरणचरमसमयपर्यंतं यावत्कालस्ततः संख्येयगुणं कालमन्तमहुर्तप्रमितं, अधःप्रवृत्तकरणेन स हि द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमनुपालयति ॥३४७।। स० च०-द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सहित जीव चढतै अपूर्वकरणका प्रथम समयतें लगाय उतरतें अपूर्वकरणका अंत समय पर्यंत जितना काल भया तातैसंख्यातगुणा ऐसा अंतर्मुहूर्तमात्र द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका काल है। सो इस काल पर्यंत अधःप्रवृत्तकरण सहित इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकौं पाले है ॥३४७।। १. उवसामगस्स पढमसमय अपुवकरणप्पहुडि जाव पडिवदमाणगस्स चरिमसमयअपुवकरणो त्ति तदो एत्तोः संखेज्जगुणं कालं पडिणिग्रत्तो अधापवत्तकरणेण उवसमसम्मत्तद्धमणुपालेदि । वही पृ० १९१५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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