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________________ ३०० लब्धिसार लगत स० चं०-ऐसे संख्यातगुणा क्रम लीएं संख्यात हजार स्थितिबंधोत्सरण भएं सबसे पीछे नाम गोत्रका पल्यके असंख्यातवें भागमात्र तातै ड्योढा तीसीयनिका दूना मोहका स्थितिबंध होइ। ताके अनंतरि मोहका पल्यमात्र तीसीयनिका पल्यका तीन चौथा भागमात्र वीसोयनिका आधा पल्यमात्र स्थितिबंध हो है पूर्व पूर्व स्थितिबंधके प्रमाणकौं उत्तर स्थितिबंधका प्रमाणविर्षे घटाएं अवशेष रहै सोई पूर्वोक्त स्थितिबंधते उत्तर स्थितिबंधविषै वृद्धिका प्रमाण हो है । सो इहाँ भी साधनकरि जानना। बहुरि चालीसीयनिका स्थितिबंध पल्यमात्र होइ तौ तोसीय अथवा बीसीयनिका केता होइ? ऐसे त्रैराशिककरि तीसोयनिका पल्यका तीन चौथा भागमात्र वीसीयनिका आधापल्यमात्र स्थितिबंस सिद्ध हो है । ऐसै अन्यत्र भी त्रैराशिक जानना जैसे स्थिति घटावनेविषै पूर्व स्थिति बंधापसरण संज्ञा कही थी तैसें स्थिति बधावनेविष इहाँ स्थितिबंधोत्सरण संज्ञा जाननी सो एक एक स्थितिबंधोत्सरणविर्षे पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र स्थिति बंधै ऐसे प्रत्येक संख्यात हजार स्थितिबंध होइ क्रमते एकेंद्री बेइंद्री तेइंद्री चौइंद्री असंज्ञी पंचेंद्रीका स्थितिबंधके समान स्थितिबंध हो है ॥३३९।। विशेष—यहाँ मुख्य बात यह लिखनी है कि जब मोहनीय आदि सातों कर्मोंका स्थितिबंध यथायोग्य किसीका पल्योपमके रूप में और किसीका अपने-अपने उत्कृष्ट स्थितिबंधके अनुपातमें होने ता है तब वृद्धिसहित स्थितिबंधकी परिगणना स्थितिबंधके रूपमें की जाती है। पहले शुद्ध वृद्धिकी अपेक्षा स्थितिबंधके प्रमाणका निश्चय कराया जाता था। किन्तु यहाँसे लेकर वृद्धिसहित पूरे स्थितिबंधका निर्देश किया जा रहा है ऐसा प्रकृतमें समझना चाहिये। प्रकृतमें इसे ही यत्स्थितिबंध कहा गया है। मोहस्स पल्लबंधे तीसदुगे तत्तिपादमद्धं च । दुतिचरुसत्तमभागा वीसतिये एयवियलठिदी ॥३४०॥ मोहस्य पल्यबन्धे त्रिशद्धिके तत्रिपादमधु च। द्वित्रिचतुःसप्तमभागा वीसत्रिके एकविकलस्थितिः ॥३४०॥ स० टी०-यदा मोहस्य पल्यमात्रस्थितिबन्धो जातस्तदा तीसियस्थितिबन्धः पल्यत्रिचतुर्भागमात्रः । वीसियस्थितिबन्धः पल्यार्धमात्रः । पुनरेकेंद्रियस्थितिबन्धसदशा वीसियतीसियमोहानां स्थितिबन्धाः सागरोपमस्य द्विसप्तमत्रिसप्तमचतुःसप्तमभागमात्राः । पुनर्दीन्द्रियादिस्थितिबन्धा सदशा वीसियादिस्थितिबन्धाः पञ्चविंशतिपञ्चाशच्छतसहस्रगुणिता असंज्ञिस्थितिबन्धपर्यन्ता अनुमन्तव्याः ॥३४०।। मो प२ । १२ प२ a ५। ५ । ५ । ५ ५५ ५ ती प३ २ प२ K २ पीप स० च०-जब मोहका स्थितिबंध पल्यमात्र भया तब तीसीयनिका पल्यका तीन चौथा भागमात्र वोसीयनिका आधा पल्यमात्र स्थितिबध हो है सोई कहि आए हैं। बहुरि एकेंद्री समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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