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________________ २९८ लब्धिसार यतः प्रभृति भवति हि असंख्यवर्ष प्रमाणस्थितिबन्धः । ततः प्रभृति अन्यं स्थितिबन्धमसंख्यगुणितक्रमम् ॥३३७|| सं० टी० --तः प्रभृति नामगोत्रादिकर्मप्रकृतीनाम संख्यातवर्षं मात्र स्थितिबन्धः प्रारब्धः । ततः प्रभृति पूर्वपूर्वस्थितिबन्धादुत्तरोत्तरस्थितिबन्धोऽन्योऽसंख्येयगुणो भवति यावत्सर्वपश्चिमः पल्यासंख्यात भागमात्रः स्थितिबन्धो जायते ॥ ३३७ ॥ स० चं० – जहाँ लगाय नाम गोत्रादिकनिका असंख्यात वर्षमात्र स्थितिबंधका प्रारंभ भया तहाँ लगा पहला पहला स्थितिबंधतैं पिछला पिछला और स्थितिबंध भया सो असंख्यात - गुणा है यावत् सर्वतं पीछे पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र स्थितिबंध होइ तावत् ऐसा ही क्रम जानना ||३३७॥ एवं पल्लासंखं संखं भागं च होइ बंधेण । तत्तो पाये अण्णं ठिदिबंधो संखगुणियकमं' ||३३८|| एवं पल्यासंख्यं संख्यं भागं च भवति बन्धेन । ततः प्रभृति अन्यः स्थितिबन्धः संख्यगुणितक्रमः ॥ ३३८ ॥ सं० टी० - एवं संख्यातसहस्र ेषु पल्यासंख्यातभागप्रमितेषु स्थितिबन्धेषु सर्वपश्चिमपल्यासंख्यातभागमात्रस्थितिबन्धात्परं युगपदेव सप्तकर्मणां पल्यासंख्यातभागमात्रः स्थितिबन्धो जातः । तत्र वीसियस्थितिबंधात् तोसियस्थितिबन्धो द्वयर्धगुणितः चालीसियस्थितिबन्धो द्विगुण इति विशेषः पूर्ववद्द्द्रष्टव्यः । आरोहकस्य क्रमेणोपलभ्यमानो दूरापकृष्टिविषयस्थितिबन्धः कथमवरोहकस्यैकवारमेव संभवतीति नाशङ्कनीयं प्रतिपातिपरिणाममाहात्म्येन तत्र तथाभावस्य विरोधाभावात् । इतः प्रभृत्यनन्तरस्थितिबन्धोऽन्यः संख्यातगुणितः सप्तकर्मणां जायते ॥ ३३८ ॥ Jain Education International स० चं० –ऐसैं यथासंभव हीनाधिक प्रमाण लीए पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र स्थितिबंध बंधता क्रम लीएं संख्यात हजार व्यतीत भएं तहाँ सर्वतैं पीछे जो पल्यका असंख्यातवाँ भाग मात्र स्थितिबंध भया तातें परें एक एक कालविषै सातो कर्मनिका स्थितिबंध पल्यके असंख्यातवें भागमात्र हो है । तहाँ विशेष जो वीसीयनिकेतैं तीसीयनिका ड्योढा. चालीसीयनिका दूणा स्थितिबंध जानना । पल्यका असंख्यातवें भागके भेद घने तातैं हीनाधिकरूप घने स्थितिबंधनिकों आलापकरि पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र ही कह्या है चढनेवालेकैं दूरापकृष्टि नाम स्थितिबंध क्रमतें भया था इहाँ उतरनेवाले प्रतिपाती परिणामनिकरि एकही बार दूरापकृष्टिनामा स्थितिबंध हो है या परें अनंतर और स्थितिबंध हो है सो सातो कर्मनिका संख्यातगुणा हो है ||३३८ ॥ विशेष - जहाँ जब पल्योपमका असंख्यातवाँ भागप्रमाण अन्तिम स्थितिबंध हुआ तब उसके आगे एक बार में पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबंध होने लगता है । यहाँ शंका यह है कि चढ़ते समय तो दूरापकृष्टिसंज्ञक पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिबंध क्रमसे प्राप्त हुआ था, यहाँ पल्योपमके असख्यातवें भागसे एक बारमें पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण १. एत्तो पाए पुणे पुण्णे ठिदिबंधे अण्णं द्विदिबंध संखेज्जगुणं बंधइ । एवं संखेज्जाणं द्विदिबंध - सहस्साणमपुव्वा वड्ढी पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो | वही पृ० १९१० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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