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________________ २५८ लब्धिसार द्वितीयादिसमयेष्वपि सूक्ष्मसांपरायचरमसमयपर्यंतमसंख्यातगणितकृष्टिद्रव्यमपकृष्य उक्तविधाने प्रथमस्थितौ द्वितीयस्थितौ च निक्षिपति । एवं बादरलोभप्रथमस्थितेः किंचिन्न्यनद्वितीयार्धमात्री सूक्ष्मकृष्टीनां प्रथमस्थिति २११-करोतीत्यर्थः । ज्ञानावरणादिकर्मणां अपूर्वकरणप्रथमसमयारब्धा गलितावशेषा सूक्ष्मसांपराय कालाद्विशेषाधिकायामा पूर्ववदेव प्रवर्तते । तस्मिन्नेव सूक्ष्मसांपरायप्रथमसमये उदयागतं सूक्ष्मकृष्टिद्रव्यं वेदयति ॥२९६॥ सूक्ष्म-साम्परायमें किये जाने वाले कार्य विशेषका निर्देश स० चं०-अनिवृत्तिकरणके अनंतरि प्रथम समयवर्ती जो सूक्ष्मसांपराय है सो अंतमुहूर्तमात्र स्थिति लिएँ समस्त सक्ष्म कृष्टिका द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां एक भाग मात्र द्रव्य ग्रहि ताकौं पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ एक भागकौं सूक्ष्म लोभकी प्रथम स्थितिविषै निक्षपण करै है। सो याका प्रमाण बादर लोभ वेदक कालत किछू घाटि तीसरा भागमात्र है । सो सूक्ष्म सांपरायका काल सोई सूक्ष्म कृष्टिका प्रथम स्थितिका प्रमाण जानना । सो यहु ( होय ) उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि आयाम है। याके निषेकनिविषै 'प्रक्षेपयोगोद्धतमिश्रपिंड' इत्यादि विधान” असंख्यातगुणा क्रम लीएँ द्रव्य दीजिए है। बहुरि अवशेष बहुभागमात्र द्रव्यकौं द्वितीय स्थितिविषै निक्षेपण करै है। सो यहु तिस प्रथम स्थितिके उपरिवर्ती है । याका प्रमाण अंतर्मुहूर्त्तमात्र है । यहु ही इहां उपरितन स्थिति है। याके निषेकनिविषै “अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे” इत्यादि विधानतें चय घटता क्रम लीए द्रव्य दीजिए है। ऐसें बादर लोभकी प्रथम स्थितिका द्वितीय अर्धसैं किंचित् न्यूनमात्र सूक्ष्म कष्टिनिकी प्रथम स्थिति करै है। बहुरि ज्ञानावरण आदि कर्मनिकी अपूर्वकरणका प्रथम समयतें लगाय गलितावशेष गुणश्रेणि आयाम पूर्ववत् प्रवतॆ है। सो ताका इहां प्रमाण किंचित् अधिक सूक्ष्मसांपराय कालमात्र है। बहुरि तिस ही सूक्ष्मसांपरायका प्रथम समयविषै सूक्ष्मकृष्टिका उदयकों वेदै है---भोगवै है ।।२९६।। विशेष-श्री जयधवलामें बतलाया है कि जब यह जीव सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानको प्राप्त होता है तब उसके प्रथम समयमें द्वितीय स्थितिमेंसे कृष्टिगत द्रव्यमें अपकर्षण भागहारका भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे ग्रहणकर उस द्वारा प्रथम स्थिति करता है। इसका प्रमाण अन्तमुहूर्त है । नियम यह है कि क्रोधकषायके उदयसे उपशमश्रेणिपर चढ़कर जो जीव लोभवेदक कालको प्राप्त होता है ऐसे बादरसाम्परायिकके जो लोभवेदककालके साधिक दो बटे तोन भाग प्रमाण प्रथम स्थिति होती है उसका कुछ कम दो भाग प्रमाण सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके प्रथम स्थिति होती है। जितनी यह प्रथम स्थिति है उतना ही सूक्ष्मसाम्परायिकका काल है। यह उदयादि अवस्थित गुणश्रेणि है। परन्तु ज्ञानावरणादि कर्मोकी गुणश्रेणि गलितावशेष है जिसका काल सूक्ष्मसाम्परायिकके कालसे कुछ अधिक है, क्योंकि इन कर्मोकी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जो गुणश्रेणि रचना प्रारम्भ हुई थी, यहाँ वह इतनी ही अवशिष्ट रहती है । अथ सूक्ष्मसापरायप्रथमसमये निषेकगतसूक्ष्मकृष्टीनां उदयानुदयविभागप्रदर्शनार्थीन्दमाह पढमे चरिमे समये कदकिट्टीणग्गलो दु आदीदो । मुच्चा असंखभागं उदेदि सुहुमादिमे सव्वे' ।।२९७।। १. पढमसमयसुहुमसांपराइयो किट्टीणमसंखेज्जे भागे वेदयदि । जाओ अपढम-अचरिमेसु समएसु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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