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________________ २३८ लब्धिसार अपवर्तिते पूर्वस्पर्धकसर्वजघन्यवर्गानन्तैकभागप्रमिताः व एताः संज्वलन लोभद्रव्यस्य प्रथमसमय सूक्ष्मकृष्टयः पुनः । १० ख पृथक् संस्थापित बहुभागद्रव्यं व १२ प पूर्वस्पर्धकनानागुणहानिषु निक्षिप्यते । तद्यथा- a ओप a तद्वहुभागद्रव्यमनुभाग संबन्धिद्वयर्धगुणहान्या विभज्य एकभागं प्रथमगुणहानिजघन्यस्पर्धकादिवर्गणायां 1 १० निक्षिप्यते व १२ प १६ पुनर्द्वितीयादिवर्गणासु द्वितीयगुणहानिप्रथमवर्गणापर्यन्तासु एकैकोत्तरचयहीनं द्रव्यं a I ओ प १२ । १६ a निक्षिप्यते । पुनद्वतीयादिगुणहानीनां द्वितीयवर्गणास्वपि पूर्वगुणहानिचयाद्धर्द्धिमात्र एकाद्यकोत्तरचयैर्हीनं द्रव्यं निक्षिप्य चरमगुणहानिचरमस्पर्धक चरमवर्गणायां तद्गुणहानिचयैः रूपोनगुणहानिमात्रैर्हीनं द्रव्यं निक्षिप्यते । एवं निक्षिप्ते अपकृष्टद्रव्यस्य पल्या संख्यात भागभक्तस्य बहुभागद्रव्यं समाप्तं भवति । सूक्ष्मच रम कृष्टिनिक्षिप्त द्रव्यात् पूर्वस्पर्धक रूपसत्त्वद्रव्यस्य प्रथमगुणहानिजघन्यस्पर्धका दिवर्गणायां निक्षिप्तद्रव्यमनन्तगुणहीनं । अनुभागसंबंधि द्व्यर्धगुणहानिभागहारमाहात्म्यात् । कृष्टिशब्दस्यार्थ उच्यते - कर्शनं कृष्टिः कर्मपरमाणुशक्तेस्तनूकरणमित्यर्थः । कृश तनूकरणे इति धात्वर्थमाश्रित्य प्रतिपादनात् । अथवा कृष्यते तनूक्रियते इति कृष्टिः प्रतिसमयं पूर्वस्पर्धक जघन्यवर्गणाशक्तेरनन्तगुणहीनशक्तिवर्गणाकृष्टिरिति भावार्थः ॥ २८४ ॥ संज्वलन लोभकी कृष्टियोंकी निक्षपणविधि स० चं० – संज्वलन लोभका सर्व सत्त्वरूप द्रव्य ताकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां एक भागमात्र द्रव्यकौं बहुरि पल्यका असंख्यातवां भागका भाग देइ तहां बहुभागकों जुदा राखि एक भागमात्र द्रव्यकौं सूक्ष्म कृष्टिरूप परिणमावै है । तहां " अद्धाणेण सव्वधणे खंडिदे" इत्यादि विधान तिस एक भागमात्र द्रव्यकौं कृष्टिनिका प्रमाणरूप जो कृष्ट्यायाम ताका भाग are मध्य आवे है । याकों एक घाटि कृष्ट्यायामका आधाकरि हीन जो दो गुणहानि ताका भाग दीए चयका प्रमाण आवै है । याकौं दो गुणहानिकरि गुणें आदि वर्गणाका द्रव्य हो है । सो इतने द्रव्यों तो प्रथम कृष्टिविषे निक्षेपण करे है याकरि प्रथम कृष्टि निपजाइए है । यहु ही प्रथम समयविषै कीनी कृष्टिनिविषै जघन्य कृष्टि है । बहुरि यातें द्वितीयादि कृष्टिनिविषै एक एक चय प्रमाण घटता द्रव्य निक्ष ेपण करें है । ऐसें एक घाटि कृष्ट्यायाममात्र चयकरि हीन प्रथम कृष्टिमात्र द्रव्यकौं अन्त कृष्टिविषै निक्षपण करें है । अब इनिविषै शक्तिका प्रमाण कहिए है पूर्व स्पर्धकनिका जघन्य वर्गविषै जो अनुभागके अविभाग प्रतिच्छेदनिका प्रमाण है ताकौं कृष्टयायामका जो प्रमाण तितनीवार अनन्तका भाग दीए जो प्रमाण आवै तितने प्रथम कृष्टिविषै अनभागके अविभाग प्रतिच्छेद हैं । बहुरि द्वितीयादि कृष्टिविषै क्रमतैं अनन्तगुणे है । सो एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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