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________________ मानत्रयकी उपशमना आदिकी प्ररूपणा २२७ विशेष-भाव यह है कि जिस समय उपशमनावलि समाप्त होकर उच्छिष्टावलि प्रारम्भ होती है उसी समय तीनों प्रकारके क्रोधके उपशम होनेके साथ नवक समयप्रबद्धोंको छोड़कर क्रोधसंज्वलनके बन्ध और उदय व्युच्छिन्न होते हैं। यहाँ जो तीनो प्रकारके उपशमनावलिके अन्तमें उपशम होनेका विधान किया है सो उसका तात्पर्य यह है कि तीनों प्रकारके क्रोधोंका प्रशस्त उपशमनविधिके द्वारा उनके पूरे द्रव्यका स्वस्थानमें ही उपशम हो जाता है, जिनका उपशम होनेके प्रथम समयसे असंख्यात गुणित श्रेणिरूपसे उपशम होता है और उपशमनावलिके अन्तमें उनका पूरा द्रव्य उपशमित हो जाता है। यतः उपशमनावलिका अन्त होकर जिस समय उसका अभाव है वही उच्छिष्टावलिके प्रारम्भ होनेका प्रथम समय है, इसलिए उपशमनावलिके अन्तिम समयकी अपेक्षा विचार करने पर उस समय नवक समयप्रबद्ध एक समय कम दोआवलि प्रमाण शेष बचता है और उच्छिष्टावलिके प्रथम समयकी अपेक्षा विचार करने पर वह दो समय कम दा आवालप्रमाण शेष बचता है ऐसा यहाँ समझना चाहिये। विशेष व्याख्यान पुरुषवेदके प्रसंगसे कर ही आये हैं। अथ मानत्रयोपशमनविधानप्रदर्शनार्थं गाथापञ्चकमाह से काले माणस्स य पढमट्ठिदिकारवेदगो होदि । पढमट्ठिदिम्मि दव्वं असंखगुणियक्कमे देदि ॥ २७२ ।। तस्मिन् काले मानस्य च प्रथमस्थितिकारवेदको भवति । प्रथमस्थितौ द्रव्यं असंख्यगुणितक्रमेण ददाति ॥ २७२ ।। सं० टी०-क्रोधत्रयोपशमनानन्तरसमये अयमनिवृत्तिकरणसंयतः संज्वलनमानस्यान्तर्मुहूर्तमात्रप्रथमस्थितेः कारको वेदकश्च भवति तद्यथा-संज्वलनमानस्य द्वितीयस्थितौ स्थितिसत्त्वद्रव्यादस्मात् स । १२-- ७।८ अपकर्षणभागहारखण्डितकभागं गृहीत्वा पुनः पल्यासंख्यातभागेन खंडयित्वा तदेकभागमदयावलिप्रथमसमयादारभ्य इदानी क्रियमाणप्रथमस्थितिचरमसमयपर्यन्तं प्रक्षेपयोगेत्यादिना प्रतिनिषेकमसंख्यातगुणितक्रमण निक्षिपति । पुनः पल्यासंख्यातबहुभागं द्वितीयस्थितौ 'दिवड्ढगुणहाणिभाजिदे पढमा' इत्यनेन विशेषहीनक्रमण उपर्यतिस्थापनावलि मुक्त्वा निक्षिपति । पुद्वितीयादिसमयेष्वपि प्रथमसमयादपकृष्टद्रव्यासंख्येयगुणितक्रमण द्रव्यमपकृष्य प्रागुक्तप्रकारेण प्रथमद्वितीयस्थित्योनिक्षिपति । प्रतिसमयं प्रथमस्थितिप्रथमनिषेकमकैकमदयमानमनुभवति च ॥ २७२ ।। स० चं०-तीनों क्रोधका उपशम होनेके अनन्तरि समयविष यह संयमी संज्वलन मानकी अन्तमुहूर्तमात्र प्रथम स्थितिका कारक कहिए कर्ता अर वेदक कहिए उदयका भोक्ता हो है सो कहिए है संज्वलन मानको प्रथम स्थितिके ऊपरिवर्ती जो द्वितीय स्थितिका द्रव्य ताकौ अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहाँ एक भागकौं ग्रहि ताकौं पल्यका असंख्यातवाँ भागका भाग देइ एक भागकौं उदयावलीका प्रथम समयतें लगाय इहाँ करी जो प्रथम स्थिति ताका अन्तसमय पर्यन्त १. माणसंजलणस्स पढमसमयवेदगो पढमदिदिकारओ च । पढमदिदि करेमाणो उदये पदेसग्गं थोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं । एवमसंखेज्जगणाए सेढीए जाव पढमटिदिचरिमसमयो त्ति । पृ० २९५-२९६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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