SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१५ सात नोकषायोंके उपशमनका विधान बन्धेषु गतेषु अन्तर्मुहूर्तकालेन स्त्रीवेदोऽत्युपशमितो भवति ॥ २५९ ॥ स्त्रीवेदकी उपशसनामें कार्यविशेषका निर्देश सं० चं०-स्त्रीवेद उपशमावनेके कालका संख्यातवाँ भाग गएं मोहका स्थितिबन्ध संख्यात हजार वर्षमात्र औरनितै स्तोक हो है। तातै संख्यातगुणा संख्यात हजार वर्षमात्र तीन घातियानिका तात असंख्यातगुणा पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र नामगोत्रका तातै किछू अधिक साता वेदनीयका स्थितिबन्ध हो है। बहरि इसहो कालविर्ष केवल ज्ञानावरण केवल दर्शनावरण बिना तीन घातियनिका लता समान एकस्थान गत ही अनुभाग बन्ध हो है ।। २५९ ।। विशेष-स्त्रीवेदके उपशमन करनेके कालमेंसे संख्यातवें भागप्रमाणकालके जानेपर ज्ञानावरण. दर्शनावरण और अन्तरायकी १४ प्रकृतियोंका स्थितिबन्ध पहले जो असंख्यात वर्षप्रमाण होता था वह न होकर अब संख्यात वर्षप्रमाण होने लगता है। तथा अनुभागबन्ध इससे पहले जो द्विस्थानीय होता था उसके स्थानपर लतारूप एक स्थानीय होने लगता है। मात्र केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरणके अनुभागबन्धके लिए यह नियम लागू नहीं है। इस गाथाका उत्तरार्ध त्रुटिपूर्ण जान पड़ता है। उसके संशोधनका कोई आधार न मिलनेसे उसे वैसा ही रहने दिया है। स्त्रीवेदोपशमनानन्तरकालभाविक्रियाविशेषप्ररूपणार्थमिदमाह थीउवसमिदाणंतरसमयादो सत्तणोकसायाणं । उवसमगो तस्सद्धा संखज्जदिमे गदे तत्तो' ।। २६० ॥ स्त्रीउपशमितानन्तरसमयात् सप्तनोकषायाणाम् । उपशामकः तस्याद्धा संख्याते गते ततः ।। २६० ॥ सं० टी० -स्त्रीवेदोपशमनान्तरसमयादारभ्य पुंवेदषण्णोकषायप्रकृतीरुपशमयती ॥ २६० ॥ स्त्रीवेदकी उपशमनाके बाद सात नोकषायोंकी उपशमनाका निर्देश सं० चं०-ऐसे स्त्रीवेद उपशमावनेके अनन्तर समयतें लगाय पुरुषवेद छह हास्यादिक इन सात प्रकृतिनिकौं उपशमाव है। तिनके उपशमावनेका काल अन्तमुहूर्तमात्र है। ताका संख्यातवाँ भाग गए कहा ? सो कहैं हैं ॥ २६० ।। तदुपशमनकालस्यान्तर्मुहूर्तस्य संख्यातकभागे गते ततः परं संभविकार्यविशेषप्रतिपादनार्थमिदमाह णामदुग वेयणियविदिबंधो संखवस्सयं होदि । एवं सत्तकसाया उवसंता सेसभागते ॥ २६१ ।। १. इत्थिवेदे उवसांते से काले सत्तण्हं णोकसायाणं उवसामगो । ताधे चेव अण्णं ठिदिखंडयमण्णमणुभागखंड्यं च आगाइदं, अण्णो च ठिदिबंधो पबद्धो। वही १०२८२ । २. एवं संखेज्जसु ठिदिबंधसहस्सेसू गदेसु सत्तण्हं णोकसायाणमवसामणाद्वाए संखेज्जदिभागे गदे तदो णामागोद-वेदणोयाणं कम्माणं संखेज्जवस्सठिदिगो बंधो। एदेण कमेण ठिबंधसहस्सेसु गदेसु सत्त णोकसाया उवसंता। वही पृ० २८४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy