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________________ अनिवृत्तिकरणमें स्थितिबन्धके प्रकारोंका निर्देश १९१ अनिवृत्तिकरणका प्रथम समयमें बन्ध और सत्त्वके प्रमाणका निर्देश सं० चं०-अनिवृत्तिकरणका प्रथम समयविष आयु विना सात प्रकृतिनिका स्थितिसत्त्व यथायोग्य अन्तःकोटाकोटी सागरमात्र है। अर स्थितिबन्ध अन्तःकोटीमात्र है। अपूर्वकरणविषै घटाएं इतना अवशेष रहै है ॥ २२७ ॥ अथ तस्मिन्नेवानिवृत्तिकरणकाले स्थितिबन्धापसरणक्रमेण स्थितिबन्धक्रमं प्रदर्शयितु गाथात्रयमाह ठिदिबंधसहस्सगदे संखेज्जा वादरे गदा भागा। तत्थ असण्णिस्स ठिदीसरिस हिदिबंधणं होदि ।। २२८ ।। स्थितिबन्धसहस्रगते संख्येया बादरे गता भागाः । तत्र असंज्ञिनः स्थितिसदृशं स्थितिबन्धनं भवति ॥ २२८ ॥ सं० टी०-अनिवृत्तिकरणप्रथमसमयादारभ्यान्तर्मुहूर्तमन्तर्मुहूर्त प्रति पल्यसंख्यातभागमात्रस्थितिबन्धापसरणक्रमेण संख्यातसहस्रस्थितिबन्धेषु गतेषु तत्करणकालस्य संख्यातबहुभागा यदा गच्छन्ति तदा असंज्ञिस्थितिबन्धसदशस्थितिबन्धो भवति । सहस्रसागरोपमप्रतिभागेन नामगोत्रयोद्विसप्तमभागप्रमितः ज्ञानदर्शनावरणान्तरायसातवेदनीयानां स्थितिबन्धः सागरोपमसहस्रत्रिसप्तमभागप्रमितः । चारित्रमोहस्य स्थितिबन्धः सागरोपमसहस्रचतुःसप्तमभागप्रमितो भवतीत्यर्थः । एवं वैशतिकत्रशत्कचत्वारिंशत्ककर्मणां प्रतिभागक्रम उत्तरत्रापि ज्ञातव्यः ॥ २२८ ॥ वहीं स्थितिबन्धापसरणसे कम-कम होनेवाले बन्धका निर्देश सं० चं०-अनिवृत्तिकरणका प्रथम समयतें लगाय एक एक अन्तमुहूर्तविणे पल्यका संख्यातवाँ भागमात्र स्थितिबन्ध घटै ऐसे स्थितिबन्धापसरणका क्रमकरि हजारों स्थितिबन्ध भएं अनिवृत्तिकरणकालका संख्यात भागनिविष बहुभाग व्यतीत भएं एकभाग अवशेष रहै असंज्ञीका स्थितिबन्ध समान स्थितिबन्ध हो है। सो असंज्ञीकै सत्तर कोडाकोडी सागर उत्कृष्ट स्थितिका धारक दर्शनमोहका हजार सागर स्थितिबन्ध है तिसका प्रतिभाग करि हजार सागरकौं सातका भाग देइ तहां एकभागतें दूणा बीसियनिका तिगुणा तीसयनिका चौगुणा चारित्रमोहका स्थितिबन्ध हो है । जिनकी बीस कोडाकोडोकी उत्कृष्ट स्थिति ऐसे नामगोत्र तिनकौं बीसिय कहिए। जिनकी तीस कोडाकोडीकी उत्कृष्ट स्थिति ऐसे ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय वेदनीय तिनकौं तीसीय कहिए । जाकी चालीस कोडाकोडी सागरकी उत्कृष्ट स्थिति ऐसा चारित्रमोह ताकौं चालीसिय कहिए । ऐसी संज्ञा आगे भी जानि लेनी ।। २२८ ।। ठिदिबंधपुधत्तगदे पत्तेयं चदुर तिय वि एएदि । ठिदिबंधसमं होदि हु ठिदिबंधमणुक्कमेणेव ॥ २२९ ।। १. तदो छिदिखंडयसहस्सेसु गदेसु ट्टि दिबंधो सदसहस्सपुधत्तं । तदो अणयट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु असण्णि ट्ठिदिबंधेण समगो ट्ठिदिबंधो । वही पृ० २३२ । २. तदो ट्ठिदिबंधपुधत्ते गदे चउरिदियबंधसमगो ठिदिबंधो । एवं तीइंदिय-बीइंदियटिदिबंधसमगो ट्ठिदिबंधो । एइंदिदिदिबन्धसमगो छिदिबंधो । वही पृ० २३३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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