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________________ अन्तरके द्रव्यके निक्षेपणका निर्देश १७९ पर्यन्त समानवी जे सम्यक्त्वमोहनीके निषेक तिनविषैही निक्ष पण करै है। तहाँ द्रव्य देनेका विधान नाहीं है। भावार्थ ऐसा-जो मिथ्यात्व मिश्रमोहनीकी प्रथम स्थिति तो आवलीमात्र है अर सम्यक्त्वमोहनीकी अन्तमुहर्तमात्र है ताकौं छोडि ऊपरिके निषेकनिका अन्तर करिए है। तहाँ मिथ्यात्व मिश्रमोहनीकी प्रथम स्थितिके ऊपरि जो अन्तरायामका पहिला निषेक था ताका द्रव्यकौं सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथम स्थितिविषै जो आवलीतें ऊपरि पहिला निषेक है तीहिविर्षे निक्षेपण कीया। ऐसे ही ताके अन्तरायामके दूसरा निषेकका द्रव्यकौं सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथम स्थितिविर्षे आवलीत ऊपरि दूसरा निषेक है तीहिविष निक्षेपण कीया ऐसे सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथम स्थितिका अन्तनिषेकके समान जो मिथ्यात्व मिश्रके अन्तरायामका निषेक तीहि जे निषेक तिनिका निक्षेपण अपने सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथम स्थितिके निषेकनिविष जानना तहाँ द्रव्य विभाग नाही है। बहुरि तिसके ऊपरि तीनों ही दर्शनमोहके अन्तरायामके निषेकनिका द्रव्य पूर्वोक्त प्रकार फालि रूपकरि सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथम स्थितिविर्षे गुणश्रेणिविर्षे उदयावलीविर्षे विभाग करि निक्षेपण करिए है ।। २१३ ॥ जावंतरस्स दुचरिमफालिं पावे इमो कमो ताव । चरिमतिदंसणदव्वं छुहेदि सम्मस्स पढमम्हि ॥ २१४ ॥ याववन्तरस्य द्विचरमफालिं प्राप्नोति अयं क्रमस्तावत् । चरमत्रिदर्शनद्रव्यं क्षेपयति सम्यस्य प्रथमे ॥ २१४ ॥ सं० टी०-एवं फालिद्रव्यस्यापकृष्टद्रव्यस्य च यावदन्तरद्विचरमफालिं प्राप्नोति तावदयमेव निक्षेपक्रमः । पुनदर्शनमोहत्रयस्य चरमफालिद्रव्यं तत्रापकृष्टद्रव्यं च सर्व सम्यक्त्वप्रकृतिप्रथमस्थितावेव निक्षिपति न पूर्ववदपकृष्टबहुभागस्य द्वितीयस्थिती निक्षेपः कर्तव्य इति भावः ।। २१४ ॥ फालिद्रव्योंकी निक्षेपण विधिका विचार सं० चं०-यावत् अन्तरकरणकालका द्विचरम समयवर्ती जो अन्तकी द्विचरम फालि सो प्राप्त होइ तहाँ फालि द्रव्य अर अपकृष्ट द्रव्य ताके निक्षेपण करनेका यहु ही पूर्वोक्त अनुक्रम जानना। बहुरि अन्तरकरणकालका अन्त समयसम्बन्धी जो दर्शनमोहत्रिककी अन्तफालिका द्रव्य है सो अर तहाँ अपकृष्ट द्रव्य सो भी सर्व सम्यक्त्वमोहनीकी प्रथम स्थिति ही विर्षे निक्षेपण करिए है। भावार्थ यहु-पूर्वं जैसैं अपकर्षण कीया द्रव्यविर्षे बहुभाग उपरितन स्थितिविर्षे देने कहे थे तैसे इहां अपकर्षण कीया द्रव्यका बहुभाग द्वितीय स्थितिविर्षे निक्षेपण न करना ।। २१४ ।। अथ दर्शनमोहगुणश्रेण्यवसानकथनार्थमिदमाह विदियट्ठिदिस्स दव्वं पढमहिदिमेदि जाव आवलिया। पडिआवलिया चिट्ठदि सम्मत्तादिमठिदी ताव ॥ २१५ ॥ १. जाव अंतरदुचरिमफाली ताव एसो चेव कमो। चरिमफालीए णिवदमाणाए जहा पुव्वं मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणमंतरट्ठिदिदव्वमोकड्डणासंकमण' अइच्छावणावलियं मोत्तूण सत्याणे वि देदि तहा संपहि ण संछुहदि । किंतु तेसिमंतरचरिमफालिदव्वं सम्मत्तपढ़मट्ठिदीए चेव गुणसेढीए णिक्खिवदि त्ति वत्तव्वं । जयध० पु० १३, पृ० २०६। २. विदियट्ठिदिदव्वं पि ताव पढमटिदीए आगच्छदि जाव आवलिय-पडिआवलियाओ सेसाओ Jain Education International Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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