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________________ प्रतिपातादिस्थानोंका अल्पबहुत्व १६७ विशुद्धि संयमतें छूटि सामायिक छेदोपस्थापनकौं सन्मुख होतें ताका अन्त समयविर्षे हो है। इहाँ इस संयमतें छुटि सकलसंयमी ही रह्या तातैं याकौं सकलसंयमकी अपेक्षा अनुभयस्थान कहा, प्रतिपातस्थान न कह्या। बहरि ताके ऊपरि असंख्यातलोकमात्र षट स्थान जाइ परिहार विशद्धिका उत्कृष्ट स्थान हो है बहुरि ताके ऊपरि असंख्यातलोकमात्र षट्स्थान जाइ सामायिक छेदोपस्थापनका उत्कृष्ट स्थान हो है । सो यहु क्षपक अनिवृत्तिकरणका अन्तसमयविषै सम्भवै है ऐसा जानना । ऐसें जघन्यतै लगाय उत्कृष्ट पर्यन्त कहे जे अनुभयस्थान ते सर्व सामायिक छेदोपस्थापनसम्बन्धी सम्भवै हैं। परिहारविशुद्धिसम्बन्धी स्थान कहे ते सामायिक छेदोपस्थापनविर्षे भी अर तहाँ भी सम्भवै हैं। ऐसा जानना । बहुरि ऐसे ए स्थान कहे तिनिविष प्रतिपातस्थान थोरे हैं तेऊ असंख्यातलोकमात्र है। तिनितै असंख्यातलोकगुणे प्रतिपद्यमानस्थान है। तिनतें असंख्यात लोकगुणे अनुभयस्थान हैं। इनि सबनिकौं मिलाएं भी असंख्यातलोक प्रमाण ही सकलसंयमके स्थान हो हैं जाते असंख्यातके भेद बहुत हैं ॥ १९६ ॥ अथ सूक्ष्मसांपराययथाख्यातचारित्रप्ररूपणार्थमिदमाह तनो य सुहुमसंजम पडिवज्जय संखसमयमेत्ता हु । तत्तो दु जहाखादं एयविहं संजमे होदि' ॥ १९७ ।। ततश्च सूक्ष्मसंयमं प्रतिवयं संख्यसमयमात्रा हि। ततस्तु यथाख्यातमेकविधं संयमे भवति ॥ १९७ ॥ ___ सं० टो-तस्मादनिवृत्तिकरणक्षपणचरमसमयसंभविसामायिकछेदोपस्थापनद्वयोत्कृष्टस्थानादसंख्येयलोकमात्राणि षट्स्थानान्यान्तरयित्वा उपशमश्रेण्यामवरोहणे अनिवृत्तिकरणाभिमुखं सूक्ष्मसाम्परायसंयमस्य जघन्यं स्थानं तच्चरसमये भवति । ततः परमसंख्यातसमयमात्रस्थानानि गत्वा सूक्ष्मसाम्परायक्षपकचरमसमये सूक्ष्मसाम्परायसंयमस्योत्कृष्ट स्थानं भवति । तस्मादसंख्येयलोकमात्राणि षट्स्थानान्यन्तरयित्वा यथाख्यातचारित्रमे कमिदं सर्वस्थानेभ्योऽनन्तविशुद्धिकं सकलसंयमोत्कृष्टमुपशान्तकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलिस्वामिकं भवति, सकलचारित्रमाहनीयप्रकृतीनां प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपाणां सर्वोपशमात्सर्वक्षयाच्च समुद्भूतत्वात्तस्य जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थानविकल्पा न सन्तीत्येकविधत्वं प्रवचने प्रतिपादितं ॥ १९७ ॥ सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यातसंयममें संयमस्थानोंका कथन सं० चं-तिस सामायिक छेदोपस्थापनका स्थानतै उपरि असंख्यातलोकमात्र स्थाननिका अन्तरालकरि उपशमश्रेणिते उतरतें अनिवृत्तिकरणके सन्मुख जीवकै अपना अन्त समयविषै सम्भवता ऐसा सूक्ष्मसांपरायका जघन्यस्थान हो है । ताके ऊपरि असंख्यात समयतात्र स्थान जाइक्षपक सूक्ष्म सापरायका अन्तसमयावष सम्भवता सक्ष्मसापरायका उत्कृष्टस्थान हो है। तातें उपरि असंख्यातलोकमात्र स्थाननिका अन्तरालकरि यथाख्यात चारित्रका एकस्थान हो है। सो यहु सवनितै अनन्तगुणी विशुद्धता लीएं उपशान्तकषाय क्षीणकषाय सयोगी अयोगीकै हो है । यामैं सर्वकषायनिका सर्वथा उपशम वा क्षय है तातै जघन्य मध्य उत्कृष्ट भेद ही नाहीं ॥ १९७॥ १. वीयकसायस्स अजहण्णमणुक्कस्सयं चरिमलद्धिट्ठाणमणंतगुणं । क० चू०, जयध० पु० १३, पृ० १८७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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