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________________ संयमसम्बन्धी विशेषताओंका निर्देश १६१ चाहिए। इस प्रकार अपूर्वकरणकी क्रियाको समाप्त कर तदनन्तर समयमें यह जीव संयत हो जाता है । तथा संयत होनेके प्रथम समयसे लेकर उसके अन्तर्मुहूर्त काल तक प्रति समय अनन्तविशुद्ध लिये हुए चारित्रलब्धि में वृद्धि होती जाती है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालतक चारित्रलब्धि में निरन्तर वृद्धि होती जानेसे उस संयमको एकान्तानुवृद्धि संयम कहते हैं । तथा उस समय यह जीव अपूर्वकरण इस संज्ञावाला स्वीकार किया जाता है । कारण कि जिस प्रकार अपूर्वकरण में प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि होनेसे उसकी अपूर्वकरण संज्ञा है उसी प्रकार यहाँ प्रति समय अनन्तगुणी विशुद्धि प्राप्त होनेसे उसे अपूर्वकरण कहा गया है । संयमको प्राप्त करके सन्मुख हुए जीवके जो विशुद्धि होती है वही यहाँ होती है ऐसा उसका अर्थ नहीं है । किन्तु अपूर्वकरण के समान यहाँ भी प्रति समय अपूर्व - अपूर्व विशुद्धि की प्राप्ति होती है, इसलिए ही यहाँ कान्तानुवृद्धि संयतको अपूर्वकरण संज्ञक संयत कहा गया है । ४. गुणश्रेणिकी दृष्टिसे विचार करनेपर संयमकी प्राप्तिके पूर्व तो गुणश्रेणि रचना नहीं होती । मात्र संयम प्राप्ति के प्रथम समयसे लेकर संयम के निमित्तसे अवस्थित गुणश्रेणि रचना प्रारम्भ हो जाती है । एकान्तानुवृद्धि संयमके अन्ततक असंख्यातगुणित क्रमसे होती रहती है । उसके बाद स्वस्थानपतित अधःप्रवृत्तसंज्ञावाले उसके विशुद्धि और संक्लेशके कारण चारित्रलब्धिमें कदाचित् वृद्धि होती है, कदाचित हानि होती है और कदाचित् • वह अवस्थित रहती है । तदनुसार यहाँ चार वृद्धियाँ और हानियाँ सम्भव हैं । चार वृद्धियाँ ये हैं - असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि । चार हानियाँ ये हैं - असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि और असंख्यातगुणहानि । प्रति समय विशुद्धिके समय एक वृद्धि होती है और संक्लेशके समय कोई एक हानि होती है। नियम यह है कि पूर्व समय में जो संयमविशुद्धि है उससे अगले समय में उसमें कितनी वृद्धि या हानि हुई है या वह अवस्थित रही है । तदनुसार प्रति समय गुणश्रेणिमें रचनामें भी वृद्धि, हानि होती रहती है । ५. इतना विवेचन करनेके बाद जयधवलामें अपूर्वकरणसे लेकर अधः प्रवृत्तकाल के भीतर जघन्य अनुभाग उत्कीरणकालसे लेकर उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मतकके पदोंका अल्पबहुत्व चूर्णिसूत्रके अनुसार निर्दिष्ट किया गया है जिसे जलधवला (पु० १३, पृ० १६८- १७०) से जान लेना चाहिए । विशेष प्रयोजन न होने से उसका हमने यहाँ उल्लेख नहीं किया है । ६. जो जीव बहुत संक्लेशरूप परिणामोंके बिना परिणामवश संयमसे च्युत हो असंयतको प्राप्त कर स्थितिसत्कर्म में वृद्धि किये बिना पुनः अन्तर्मुहूर्त में विशुद्ध होता हुआ संयमको प्राप्त होता है उसके न तो अपूर्वकरणरूप परिणाम होते हैं और नहीं स्थिति अनुभाग काण्डकघात ही होते हैं, क्योंकि पहले घातकर जो स्थिति और अनुभाग शेष रहा था वह उसके तदवस्थ बना रहता है । ७. किन्तु जो संयत संक्लेशकी बहुलतावश मिथ्यात्व सहित असंयत होकर अन्तर्मुहूर्तके बाद या लम्बे कालके बाद पुनः संयमको प्राप्त करता है उसके पूर्वोक्त दोनों करण तथा स्थितिअनुभाग काण्डकघात अवश्य होते हैं, क्योंकि इसने मिथ्यात्व अवस्था में जो स्थिति और अनुभागको बढ़ाया है उनका घात किये बिना पुनः संयमको ग्रहण करना इसके बन नहीं सकता है । ८. आगे संयत जीवका सत्प्ररूपणा आदि आठ अनुयोगद्वारोंके माध्यमसे कथन करनेका निर्देश किया गया है | जिसे जयधवला ( पु० १३, पृ० १७१ - १७४ ) से जान लेना चाहिए । २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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