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________________ १६० लब्धिसार शेन सकलसंयमात्प्रच्युत्य मिथ्यात्वं गत्वा तत्र दीर्घमन्तर्मुहूर्त वा चिरकालं वा स्थित्वा स्थित्यनुभागौ वर्धयित्वा पुनर्वेदकसम्यक्त्वेन सह सकलसंयमं गृह्णाति तस्याधः प्रवृत्तापूर्वकरणद्वयं स्थित्यनुभागखण्डनं च विद्यत एव । तदा विशुद्धिसंक्लेशपरावृत्तिवशेन स्वस्थानसकलसंयतः असंख्यात भागाधिकं संख्यातभागाधिकं संख्यातगुणमसंख्यातगुणं वा असंख्यात भागहीनं संख्यातभागहीनं संख्यातगुणहीनमसंख्यातगुणहीनं वा द्रव्यमपकृष्याव - स्थितायामां गुणश्र ेणि करोत्येव । जघन्यानुभागखण्डोत्करणकालः सर्वतः स्तोकमित्यादिषु देशपदस्थाने विरतपदं निक्षिप्याल्पबहुत्वपदान्यष्टादशापि पूर्ववद् व्याख्येयानि ।। १९१ ।। देशसंयमके समान सकलसंयममें प्रक्रियाका निर्देश सं० चं० - इहाँ ऊपरि अल्पबहुत्व पर्यन्त जैसे पूर्वे देशविरतविषै व्याख्यान किया है। तैसे सर्व व्याख्यान इहां जानिये है। विशेष इतना - वहाँ जहाँ देशविरत कह्या है इहां तहां सकल विरत कहना सो कहिए है - अधःप्रवृत्त करणादिकके कालका अल्पबहुत्व अर प्रथमोपशम सम्यक्त्ववत् जो हजारों स्थितिखण्ड भएं अपूर्वकरणको समाप्तकरि अनन्तर समयविषै सकल संयमविषै संयमको ग्रहै तहां प्रथम समयतें लगाय एकान्तवृद्धिका अन्त समय पर्यन्त समय-समय असंख्यातगुणा ऐसा असंख्यात समयप्रबद्ध प्रमाण द्रव्यकौं ग्रहि अवस्थिति गुणश्रेणि करै है । तहां बहुत स्थितिकाण्ड भएं एकान्तवृद्धिका अन्त समय पीछें अनन्तर समयतें लगाय स्वस्थान सकलसंयमी हो है । तहां स्थिति अनुभागकाण्डकका घात नाहीं है । गुणश्रेणि है ही । जो जीव सकलसंयमतैं भ्रष्ट होइ शीघ्र ही सकलसंयमकौं प्राप्त होइ तार्के करण वा स्थितिकाण्डकादि न हो है । अर जो सकलसंयमतें भ्रष्ट होइ मिथ्यात्वकौं प्राप्त होइ तहां बड़ा अन्तर्मुहूर्त वा बहुत काल रहि स्थिति अनुभाग बँधाय बहुरि वेदक सम्यक्त्वसहित सकलसंयमको ग्रहै है ताकेँ दोय करण वा स्थितिकाण्डक घातादि हो हैं । बहुरि स्वस्थान सकलसंयम विशुद्धताकी वृद्धि हानित चतुःस्थान पतित वृद्धि हानि लीएं द्रव्यकौं अपकर्षण करि समय-समय गुणश्रेणि करै है । बहुरि जघन्य अनुभाग खण्डोत्करण कालादिक अठारह स्थाननिविषै पूर्वोक्तवत् तहां अल्प बहुत्व जानना || १९१ ।। विशेष—गाथा १९१ में यह सूचना की गई है कि देशविरत जीवके प्ररूपणामें जो प्रक्रिया की गई है वही सब संतजीवके विषय में भी जाननी चाहिए। मात्र उसमें जहाँ-जहाँ देशविरत शब्दका प्रयोग किया गया है वहाँ-वहाँ संयतपदका प्रयोग करना चाहिए। यह उक्त सूत्रकथनका अर्थ है। हाँ, जयधवला में इस सम्बन्ध में कुछ विशेष सूचनाएँ की गई हैं। उनका निर्देश हम यहाँ कर देना चाहते है १. जो वेदकसम्यग्दृष्टिजीव संयमके अभिमुख होता है उसके अधः करण और अपूर्वकरण ये दो ही करण होते हैं । उसमें अधः करणके अन्तमें सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्वके सन्मुख हुए जीवके सम्बन्धमें जिन चार गाथाओंका उल्लेख कर आये हैं उनको लक्ष्य में रखकर व्याख्यान करना चाहिए | इतना अवश्य है कि यहाँ उनका व्याख्यान संयमके सन्मुख हुए वेदकसम्यग्दृष्टिको लक्ष्यमें रख करना चाहिए । विशेष व्याख्यान जयधवला (पु० १३, पृ० १५९-१६३) से जान लेना चाहिए । २. संयमको प्राप्त होनेवाले उक्त जीवके अधःकरण और अपूर्वकरणमात्र ये दो करण होते हैं । इनका व्याख्यान संयमासंयमकी प्राप्तिके समय जैसा कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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