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________________ अथ सकलसंयमलब्धिः ॥४॥ अथ सकलचारित्रप्ररूपणमुपक्रममाण इदं सूत्रमाह सयलचरित्तं तिविहं खयउवसमि उवसमं च खइयं च । सम्मत्तप्पत्तिं वा उवसमसम्मेण गिण्हदो पढम' ।। १८९ ।। सकलचारित्रं त्रिविधं क्षायोपशमिकं औपशमिकं च क्षायिकं च । सम्यक्त्वोत्पत्तिमिव उपशमसम्येन गृह्वतः प्रथमम् ।। १८९ ॥ सं० टी०-सकलचारित्रं त्रिविधं क्षायोपशमिकमुपशमजं क्षायिक चेति । तत्र प्रथमं क्षायोपशमिकचारित्रमुपशमजसम्यक्त्वेन सह गृह्णतो जीवस्य प्रथमोपशमसम्यक्त्वोत्पत्तौ यथा प्रक्रिया प्रागुक्ता यथा अत्रापि निरवशेषं वक्तव्या ॥ १८९ ॥ अथ सकल चारित्रकौं प्ररूपै हैं सं० चं०-सकल चारित्र तीन प्रकार है-क्षायोपशमिक १ औपशमिक २ क्षायिक । १ । तहां पहला क्षायोपशमिक चारित्र सातवें वा छठे गुणस्थानविर्षे पाइए है । ताकौं जो जीव उपशम सम्यक्त्वसहित ग्रहण करै है सो मिथ्यात्वतै ग्रहण करै है ताका ती सर्व विधान प्रथमोशम सम्यक्त्वकी उत्पत्तिविर्षे कह्या है सो जानना । क्षायोपशमिक चारित्रकौं ग्रहता जोव पहले अप्रमत्त गुणस्थानकौं प्राप्त हो है ।। १८९ ॥ विशेष-सकल सावद्यके विरतिस्वरूप पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियोंको प्राप्त होनेवाले मनुष्यके जो विशुद्धिरूप परिणाम होता है उसे संयमलब्धि या सकलसंयम कहते हैं। अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषायोंकी उदयाभावलक्षण उपशमनाके होनेपर यह उत्पन्न होता है । यद्यपि यहाँ चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका उदय है। परन्तु वहाँ उनके सर्वधातिस्पध कोंका उदय न रहनेसे उनका भी देशोपशम पाया जाता है। स्थिति उपशमना दो प्रकारसे सम्भव है-एक तो अनुदयवाली पूर्वोक्त प्रकृतियोंकी स्थितियोंका उदयरूप न होना स्थिति उपशमना है। दूसरे सभी कर्मोंकी अन्तःकोड़ाकोड़ीसे उपरिम स्थितियोंका उदयरूप न होना स्थिति उपशमना है। पूर्वोक्त बारह कषायोंके अनुभागका उदयरूप न होना अनुभाग उपशमना है। तथा उदयरूप कषायोंके सर्वघाति स्पर्धकोंका उदय न होना अनुभाग उपशमना है। ज्ञानावरणादिकर्मो के भी त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागके परित्यागपूर्वक द्विस्थानीय अनुभागकी प्राप्ति अनुभाग उपशमना है। अनुदयरूप उन्हीं पूर्वोक्त कषायोंके प्रदेशोंका उदय नहीं होना प्रदेश उपशामना है। ये सब विशेषताएँ संयमासंयमलब्धिके प्राप्त होते समय भी रहती १. का संजमलद्धी णाम ? पंचमहन्वय-पंचसमिदि-तिण्णिगुत्तीओ सयलसावज्जविरइलक्खणाओ पडिवज्जमाणस्स जो विसोहिपरिणामो सो संजमलद्धि त्ति विण्णायदे, खओवसमियचरित्तलद्धीए संजमलद्धिववएसालंबणादो। ओवसमिय-खइयसंजमलद्धीओ एत्थ किण्ण गहिदाओ? ण, चारित्तमोहोवसामणाए तक्खवणाए च तासि पबंधेण परूवणोवलंभादो । जयध० पु०१०७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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