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________________ कृतकृत्यवेदकस्य भवान्तरगमनविधिनिरूपणम् १२५ मृतो देवमनुष्य तिर्यग्गतिष्वेवोत्पद्यते न नारकतौ तत्काले नारकगतिगमनहेतुसं क्लेशपरिणामासंभवात् । तदनन्तरचरमचतुर्थभागे मृतः कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टिश्चसृष्वपि देवमनुष्यतिर्यग्नारकगतिषूत्पद्यते तत्काले तद्गतिगमननिबन्धन संक्लेश परिणामोपलम्भात् ।। १४५–१४६ ।। स० चं० ऐस अनिवृत्ति करणके अन्त समयविषं सम्यक्त्व मोहनीका अन्त काण्डककी अन्त फालिका द्रव्यकौं नीचले निषेकनिविषं निक्षेपण किए पीछें अनन्तर समयतें लगाय अनिवृत्ति करण कालका संख्यातवां भागमात्र अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त जो पुरातन गलितावशेष गुणण आयामका शीर्षं ताकौं संख्यातका भाग दीये तहां बहुभागमात्र अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टी हो है जातै दर्शनमोहकी क्षपणा योग्य स्थिति काण्डकादि कार्य सो अनिवृत्तिकरणका अन्त समय विषै ही समाप्त भया, तातैं कीया है करने योग्य कार्य जाने ऐसा कृतकृत्य नाम पावै है सो जीव भुज्यमान आयुके नाशतैं मरण पावै तौ सम्यक्त्व ग्रहणते पहले जो बांध्या था आयु ताके वश व्यारयौ गतिनिविषै उपजै है । तहां कृतकृत्य वेदकके कालका च्यारि भाग एक एक अन्तर्मुहूर्तमात्र करिए । तहां प्रथमभागबित्र मूवा तौ देव ही विषै दूसरा भागविषं मूवा देव वा मनुष्यविषै, तीसरा भागविषै मूवा देव मनुष्य तिर्यञ्च विषं चौथा भाग विषै मूवा च्यारथो गति विष उपजै है । जातैं तहां तिनहीविषै उपजने योग्य परिणाम हो हैं । ऐसें क्रमकरि कृतकृत्य वेदककी उत्पत्ति जाननी ।। १४६ ।। विशेष - कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि प्रथम समय से लेकर प्रथम अन्तर्मुहूर्त के भीतर यदि मरता हैं तो वह नियमसे सौधर्मादि देवोंमें ही उत्पन्न होता है, क्योंकि इस कालके भीतर शेषगतियोंमें उत्पत्ति के कारणभूत लेश्याका परिवर्तन नहीं पाया जाता । प्रथम अन्तर्मुहूर्त के बाद यदि मरता है तो वह नारकियों, तिर्यञ्चों और मनुष्यों में भी उत्पन्न होता है । श्रीजयधवलामें कृतकृत्यवेदकके मरणके विषय में मात्र इतना ही उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । इसमें जो विशेषता है उसका उल्लेख गाथा १४५ - १४६ 'टीकासे जानना चाहिए । करणपढमादु जावय किद किच्चुवरिं मुहुत्तअंतोति । ण सुहाण परावती सा धि कओदावरं तु वरिं ॥ १४७ ॥ करणप्रथमात् यावत् कृतकृत्योपरि मुहूर्तान्त इति । न शुभानां परावृत्तिः सा हि कपोतावरं तु उपरि ॥ १४७ ॥ सं० टी०—–अधःप्रवृत्तकरण प्रथमसमयादारभ्य कृतकृत्यवं दककालचरमसमयपर्यन्तं लेश्यापरावृत्तिसंभवासंभवप्ररूपणार्थमिदं सूत्रमाह । अधःप्रवृत्तकरण प्रथमसमये दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भकस्य तेजः पद्मशुक्ललेश्यानां शुभानां मध्ये यया लेश्यया क्षपणा प्रारब्धा तल्लेश्यो त्कृष्टांशः प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिक्रमेणानिवृत्तिकरणचरमसमये परिपूर्णो भवति । पुनस्तदनन्तरकृतकृत्यवे दककालस्याभ्यन्तरे प्रथमभागे यदि म्रियते तदा तत्रापि तल्लेश्यापरावृत्तिर्नास्ति तस्य देवेष्वेवोत्पादात् । यदि द्वितीयभागे म्रियते तदा तस्य भोगभूमिजमनुष्य गतावृत्पत्तिसंभवात् प्रागारब्धशुभलेश्याया उत्कृष्टमध्यम जघन्यांशानां संक्रमक्रमेण हान्या मरणकाले कपोतलेश्या १. चरिमेट्ठिदिखंडए णि ट्ठिदे कदकरणिज्जो त्ति भण्णदे । ताधे मरणं वि होज्ज । लेस्सापरिणामं पि परणामैज्ज । काउ-तेउ-पम्म सुक्कलेस्साणमण्णदरस्स । क० चू०, जयध० पु० १३, पृ० ८१-८२ । १३, पृ० ८८ । जइ तेउ-पम्म-सुक्के वि अंतोमुहुत्तकदकरणिज्जो । क० चू०, जयध० पु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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