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चतुःस्थानीय अनुभागका वेदक होता है तथा प्रदेशोंकी अपेक्षा अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेशोंका वेदक होता है। इसके साथ ही वह उदयप्राप्त इन सबका उदीरक होता है।
सत्त्वका विचार करते हुए जिन प्रकृतियोंका यथासम्भव सत्त्व सम्भव नहीं है उनका उल्लेख करने के बाद जहाँ जितनी प्रकृतियोंका सत्त्व होता है उनकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेश अजधन्य-अनुत्कृष्ट ही होता हैं यह बतलाया गया है।
यह सब प्रायोग्यलब्धिका समग्र विचार है जो भव्यों और अभव्यों दोनों के सम्भव है । इस प्रकार हम देखते हैं कि क्षयोपशम आदि चार लब्धियां जैसे भव्योंके सम्भव हैं वैसे ही अभव्यों के भी हो सकती हैं। किन्तु जो भव्य जीव हैं वे ही इन लब्धियोंके होनेपर यथासम्भव करणलब्धिको प्राप्त करते हैं। करण परिणामविशेषकी संज्ञा है। ऐसे परिणामोंको जिनके होनेपर यह जीव नियमसे दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका यथासम्भव उपशम और क्षय करता है करणलब्धि कहते हैं। यद्यपि वेदक सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय भी किन्हीं जीवोंके अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणरूप करणलब्धि होती है पर उसकी यहाँ विवक्षा न कर करणलब्धिका उक्त लक्षण कहा गया है ।
करणलब्धिके तीन भेद हैं-अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । इनमें से प्रत्येकका काल अन्तम हर्त है। उसमें भी अधःप्रवृत्त करणका काल सबसे अधिक है, उसका संख्यातवाँ भाग अपूर्वकरणका काल है और उसका भी संख्यातवाँ भाग अनिवृत्तिकरणका काल है। नीचेके समयवर्ती किसी जीवके परिणाम ऊपरके समयवर्ती अन्य किसी जीवके परिणामोंके सदृश हो सकते हैं, इसलिए इसकी अधःप्रवृत्तकरण संज्ञा है। इसकी कहीं-कहीं यथाप्रवृत्त करण संज्ञा भी पाई जाती है । जहाँ प्रत्येक समयमें जीवोंके परिणाम भिन्न-भिन्न होते हैं उसकी अपूर्वकरण संज्ञा है और जहाँ एक समयवर्ती सब जीवोंका परिणाम एक ही होता है उसकी अनिवृत्तिकरण संज्ञा है।
ये तीन करण हैं। इनमेंसे प्रथम करण में गुणश्रेणिरचना, गुणसंक्रमण, स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात ये चार कार्य नहीं होते । हाँ प्रत्येक, समयमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धि होनेसे अप्रशस्त कर्मों के अनुभागमें अनन्तगुणी हानि, प्रशस्त कर्मोके अनुभागमें अनन्तगुणी वृद्धि होती रहती है । इसके साथ संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण भी होते है। एक स्थितिबन्धापसरणका प्रमाण पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण और काल अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके प्रथम समयमें जितना स्थितिबन्ध होता है, उसके अन्तिम समयमें वह घटकर संख्यातगुणा हीन हो जाता है । यदि वही जीव प्रथम सम्यक्त्वके साथ देशसंयम और सकलसंयमको प्राप्त करता है तो उक्त स्थितिबन्ध असंयतके जितना हाता है उससे और भी संख्यातगुणा हीन हो जाता है ।
परिणामोंकी अपेक्षा विचार करने पर नाना जीवोंकी अपेक्षा इस करणके प्रत्येक समयमें वे परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं जो उत्तरोत्तर एक-एक समयमें विशेष अधिक होते जाते हैं। परिणामोंकी यह वृद्धि समानरूपसे होती है । यहाँ विशेषका प्रमाण लानेके लिए प्रतिभागका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । प्रकृतमें अधः प्रवृत्तकरणका जितना काल होता है उसके संख्यातवें भागप्रमाण अनुकृष्टिकाल होता है। इसे निर्वगंणाकाण्डक कहते हैं। एक निर्वर्गणाकाण्डकके जितने समय हों उतने प्रत्येक समयके परिणामोंके खण्ड होते हैं जो प्रथम खण्डसे लेकर उत्तरोत्तर एक-एक चयप्रमाण अधिक होते हैं। यहाँ भी चयका प्रमाण लानेके लिए प्रतिभागका प्रमाण अन्तर्महर्त है। इस प्रकार प्रत्येक समयमें जितने खण्ड प्राप्त होते हैं उनमेंसे एक-एक खण्डमें भी असंख्यात लोकत्रमाण परिणाम होते हैं जो षटस्थान पतित वृद्धिसे युक्त होते हैं। प्रथम और
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