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________________ प्रस्तावना विषय परिचय जैसा कि हम पहले ही लिख आये हैं, लब्धिसार ग्रन्थमें करणानुयोगके अनुसार सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्रकी उत्पत्तिका कथन करनेके प्रसंगसे संक्षेपमें उसके फलका भी निर्देश किया गया है । उसमें भी सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति किस विधिसे होती है यह दिखलाते हुए निमित्त भेदसे उसके तीन भेद किये गये हैं । यथा-औपशमिक सम्यग्दर्शन, क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन और क्षायिक सम्यग्दर्शन । तात्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीयके अन्तरकरण उपशम और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अनुदयरूप उपशमपूर्वक मिथ्यात्वरूप पर्यायका अभाव होकर जो आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है वह औपशमिक सम्यग्दर्शन है। उक्त सात प्रकृतियोंमेंसे छह प्रकृतियोंके क्षयोपशम और सम्यक्प्रकृतिके उदयपूर्वक जो आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है वह क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन है तथा उक्त सातों प्रकृतियोंके क्षयपूर्वक जो आत्मविशुद्धि प्राप्त होती है वह क्षायिक सम्यग्दर्शन है। करणानुयोगके अनुसार यह इन तीनों सम्यग्दर्शनोंकी उत्पत्तिका प्रकार है । इन तीनों सम्यग्दर्शनोंमें आत्मविशुद्धि मुख्य है । जाति और स्वादकी अपेक्षा उनमें भेद नहीं है । भेद केवल कर्मोंके सदभाव और असदभावको मुख्य कर किया गया है। प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन प्रथम प्रथमोपशम सम्यग्दर्शन है । यह मुख्य और भूमिस्वरूप है । मुख्य इसलिए है, क्योंकि सर्व प्रथम मोक्षमार्गका दरवाजा इस द्वारा ही उद्घाटित होता है और भूमिस्वरूप इसलिए है, क्योंकि मोक्षमार्गपर आरूढ़ होनेके लिए सर्वप्रथम यह जमीनका काम देता है। इसकी उत्पत्ति पाँच लब्धियोंके होनेपर ही होती है । वे ये हैं-क्षयोपशमलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि । इनमेंसे प्रारम्भकी चार लब्धियाँ यथासम्भव भव्यों और अभव्यों दोनोंके पायी जाती है। इतना अवश्य है कि जो मिथ्यादृष्टि भव्य जीव औपशमिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के सन्मुख होते हैं वे इनके होनेपर ही करणलब्धिके सन्मुख होनेके पात्र होते हैं । ऐसा नियम है कि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका उपशम और क्षय करणलब्धिके प्राप्त होनेपर ही होता है, इसलिये करणलब्धिके प्राप्त होनेके पूर्व जो क्षयोपशम आदि चार लब्धियाँ होती हैं उनमेंसे अन्तिम प्रायोग्यलब्धिके होनेपर जो कार्य होते हैं उनका विचार करते हुए बतलाया है कि आयु कर्मके बिना शेष कर्मोका बन्ध, स्थिति सत्त्व, अनुभागसत्त्व और प्रदेशसत्त्व न तो उत्कृष्ट होना चाहिये और न क्षपकणिके योग्य जधन्य ही होना चाहिये। वह एक तो उत्तरोत्तर विशुद्धिकी वृद्धि करता हुआ सातों कर्मोंकी अन्तःकोडाकोडीप्रमाण मध्यम स्थितिबन्ध करता है तथा चारों गतियोंमें स्थितिको घटाते हुए यथासम्भव प्रकृतिबन्धापसरण करता है जो सब मिलाकर ३४ होते हैं। आगे किस गतिमें कितनी प्रकृतियोंका बन्ध होता है इसका विचार कर किन प्रकृतियोंका कैसा अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध होता है इसका उल्लेख किया गया है। उदयप्रकृतियोंका विचार करते हुए बतलाया गया है कि स्थितिकी अपेक्षा उदयप्राप्त एक स्थितिनिषेकका वेदक होता है, अनुभागकी अपेक्षा अप्रशस्त प्रकृतियोंके द्विस्थानीय अनुभाग तथा प्रशस्त प्रकृतियोंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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