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________________ सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंचयका विचार स० चं०-मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलीमात्र स्थिति अवशेष रहने के समयतें लगाय मिश्रमोहनीकी स्थितिविर्षे पल्यकौं असंख्यातका भाग दोएं तहाँ बहुभागमात्र आयाम धरै जैसे संख्यात हजार स्थितिकांडक भएं तहाँ अंतकांडकको अतफालिका पतनविर्षे मिश्रमीहनीके निषेक उच्छिष्टावलीमात्र अवशेष रहै हैं । १२४ ॥ विशेष-पहले मिथ्यात्वकी उच्छिष्टावलिको छोड़कर जिस विधिसे उसकी क्षपणाका विधान कर आये हैं उसी विधिसे सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणाका विधान जानना चाहिए। यह प्रकृतमें उदय प्रकृति न होनेसे अन्तमें इसको भी उच्छिष्टावलिको छोड़कर शेषकी क्षपणा स्थितिकाण्डकघातके क्रमसे हो जाती है । तथा उच्छिष्टालिप्रमाण निषेकोंका स्तिवुकसंक्रमद्वारा सम्यक्त्वप्रकृतिमें संक्रमण होकर अभाव हो जाता है। मिथ्यात्वको उच्छिष्टावलिका भी इसी विधिसे अभाव होता है। मिस्सुच्छिट्टै समये पल्लासंखेज्जभागिगे खंडे । चरिमे पदिदे चेट्ठदि सम्मस्सडवस्सठिदिसत्तो' ।। १२५ ॥ मिश्रोच्छिष्टे समये पल्यासंख्येयभागगे खंडे। चरमे पतिते चेष्टते सम्यक्त्वस्याष्टवर्षस्थितिसत्त्वम् ॥ १२५ ॥ सं० टी०-यस्मिन् समये मिश्रप्रकृतेश्चरमकांडकचरमफालिपतने आवलिमात्रस्थितिरवशिष्यते तस्मिन्नेव समये सम्यक्त्वप्रकृतिस्थितौ पल्यासंख्यातभागबहुभागमात्रायामेषु संख्यातसहस्र स्थितिकांडकेषु गतेषु चरमकांडकचरमफालिपतने अष्टवर्षमात्रस्थितिसत्त्वमवशिष्य तिष्ठति ॥ १२५ ॥ स० च०-जिस समय मिश्रमोहनीकी उच्छिष्टावलीमात्र स्थिति रहै है तिसही समयविर्षे सम्यक्त्वमोहनीकी स्थितिविर्षे पल्यकौं असंख्यातका भाग दोएं तहाँ बहुभागमात्र आयाम धरैं जैसे संख्यात हजार स्थितिखंड व्यतीत होने” इहाँ तिस सम्यक्त्वमोहनीका अष्ट वर्षप्रमाण स्थितिसत्व अवशेष रहै । भावार्थ यहु-मिश्रमोहनीकी उच्छिष्टावलीमात्र स्थिति रहनेका अर सम्यक्त्वमोहनीकी आठ वर्षमात्र स्थिति रहनेका एक हो काल है ।। १२५ ।। । विशेष--जिस समय सम्यग्मथ्यात्वकी उच्छिष्टावलिप्रमाण स्थिति शेष रहता है उस समय सम्यक्त्वकी सत्त्वस्थिति कितनी शेष रहतो है इस प्रश्नका समाधान करते हुए चूणिसूत्रोंमें बतलाया गया है कि इस विषयमें दो उपदेश पाये जाते हैं-अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार सम्यक्त्वकी संख्यात हजार वर्षप्रमाण सत्त्वस्थिति शेष रहती है और प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार आठ वर्ष प्रमाण सत्त्वस्थिति शेष रहती है । जो सर्व आचार्यसम्मत है तथा जो आर्यमंक्षु और नागहस्ति महावाचकोंके मुखकमलसे निकला है वह प्रकृतमें प्रवाह्यमान उपदेश है और इसके अतिरिक्त दूसरा अप्रवाह्यमान उपदेश है । आगे प्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार व्याख्यान किया गया है इतना प्रकृतमें स्पष्ट समझना चाहिए। १. ताधे सम्मत्तस्स दोण्णि उवदेसा । के वि भणंति-संखेज्जाणि वस्ससहसाणि ट्ठिदाणि त्ति । पवाइज्जतेण उवदेसेण अवस्साणि सम्मत्तस्स सेसाणि, सेसाओ ट्रिदीओ आगाइदाओ त्ति । क० च्०, जयध० भा० १३, पृ० ५४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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