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________________ ८४ लब्धिसार वदंतरायामे निक्षिप्य अवशिष्टापकृष्टद्रव्यमिदं स । १२- दिवगुणहाणिभाजिदे पढमा,इत्यनेन ७। ख । १७ । ग ओ द्वितीयस्थितिप्रथमनिषेकादारभ्य सर्वत्र विशेषहोनक्रमेण उपर्यतिस्थापनावलि मक्त्वा निक्षिपेत् । उदयायोग्ययोमिश्रमिथ्यात्वप्रकृत्योर्द्रव्यमपकृष्टकभागमदयावलिबाह्यांतरायाम द्वितीयस्थितौ च पूर्ववन्नि क्षिपेत् । मिश्रस्यांतरायामाधस्तनावल्यां कुतो न दीयते ? इति चेत् न तत्र प्रागपि निषेकसद्भावात् मिथ्यात्वोदयात्तद्रव्यमुदयावलिप्रथमसमयादारभ्य निक्षिपेत । अनुदययोः शेषयोर्द्रव्यमदयावल्यां न निक्षिपेत् । सर्वत्र एकगोपच्छाकारेण विशेषहीननिक्षेपाभ्युपगमात् ॥ १०४ ॥ स० चं०-तहां उदयवान सम्यक्त्वमोहनी होइ तौ ताका द्रव्यकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ तहां बहुभाग तो जैसे थे तैसे रहे। बहुरि एक भागकौं असंख्यात लोकका भाग देइ तहां एक भाग तौ उदयावलोविर्षे देना सो 'उदयावलिस्स दव्वं' इत्यादि सूत्रकरि जैसैं पूर्व विधान कह्या है तैसें उदयावलीके निषेकनिवि चय घटता क्रमकरि निक्षेपण करना। बहरि अपकर्षण कीया द्रव्यविर्षे अवशेष बहुभागमात्र रह्या ताका नाम अपकृष्टावशिष्ट द्रव्य है । सो तिसविर्षे अंतरायामके निषेकनिका अभाव था तिनिका सद्भाव करनेकौं कितना इक द्रव्य तौ तहां देना। सो कितना देना ताका जाननेकौं विधान कहिए है-नाना गुणहानिवि तिष्ठता असा जो सम्यक्त्वमोहनीकी द्वितीय स्थितिका द्रव्य ताकौं अपकर्षण भागहारका भाग देइ एक भाग जुदा कीएं अवशेष बहुभागमात्र जो द्रव्य रह्या ताकौं 'दिवड्ढगुणहाणिभाजिदे पढमा' इस सूत्रकरि साधिक ड्योढ गुणहानिप्रमाण का भाग दीएं तिस द्वितीय स्थितिका प्रथम निषेक होइ सो याके समान अंतरायामके सर्व निषेक चय रहित स्थापि जोडे आदि धन होइ सो 'पदहतमुखमादिधनं' इस सूत्र करि अंतरायाम प्रमाण गच्छकरि तिस प्रथम निषेककौं गुणें अंतरायामके निषेकनिका आदि धन भया। बहुरि द्वितीय स्थितिके नीचें अंतरायामके निषेक हैं तातै द्वितीय स्थितिका आदि निषेकतै चय बधता क्रमरूप अंतरायामकौं निषेक कहिए सो चयका प्रमाण ल्याइए है-द्वितीय स्थितिकी प्रथम गुणहानि ताका प्रथम निषेक ताके नीचैवर्ती जो अंतरायामसम्बन्धी गुणहानि ताका प्रथम निषेक दूणा प्रमाण लीएं चय कहिए। याकौं दो गुणहानिका भाग दीएं अंतरायामविर्षे चयका प्रमाण आवै है। सो 'सैकपदाहतपददलचयहतमत्तरधनं, इस सत्रकरि इहां गच्छ अंतरायाममात्र सो एक अधिक गच्छकरि आदि गच्छका आधाकौं गुणि बहुरि चयकरि गुणें उत्तरधन हो है । सो असैं आदि धन उत्तरधनकौं मिलाएं जो प्रमाण भया तितना द्रव्य तिस अपकृष्टावशिष्ट द्रव्यतै ग्रहिकरि अंतरायामविषं देना। तहां द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकतें गच्छमात्र चयनिकरि अधिक द्रव्य तौ अंतरायामका प्रथम निषेकवि देना। इहां गच्छका प्रमाण अंतरायाम अर चयका प्रमाण पूर्वोक्त जानना । बहरि द्वितीयादि निषेकनिविर्षे एक एक चय घटता क्रम लीएं देना। अत निषेकनिविर्षे एक एक चय अधिक देना। असैं दीएं जैसैं क्रम लोएं चहिए तैसें अंतरायामके निषेकनिका अभाव भया था तिनिका सद्भाव भया । अब अपकृष्टावशिष्ट द्रव्यविर्षे इतना द्रव्य दीएं किंचित् ऊन भया तिस अवशेष द्रव्यकौं अंतरायाम वा द्वितीय स्थितिविर्षे देना। तहां अंतरायामविर्ष तौ पूर्वे जैसे आदि धन उत्तर धन मिलाइ द्रव्य प्रमाण ल्यावनेका विधान कहा था तैसैं प्रमाण ल द्रव्यकौं अंतरायामके निषेकनिविर्षे देना। याकौं दीए पीछे जो अवशेष रह्या ताकौं 'दिवडढगणहाणिभाजिदे पढमा' इत्यादि विधानकरि द्वितीय स्थितिके नाना गुणहानिसम्बन्धी जे निषेक तिनविर्षे अंतके अतिस्थापनावलोमात्र निषेक छोडि सर्वत्र देना। औसैं तो उदय योग्य सम्यक्त्वमोहनीका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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