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________________ H अनुभागकाण्डकविचार विशेष—प्रत्येक अनुभागकाण्डकके पतन होनेके बाद जो अनुभागसत्त्व शेष रहता है उसके अनन्त बहुभागप्रमाण अनुभागको लेकर उसके अगले अनुभागकाण्डककी रचना होती है जिसका एक स्थितिकाण्डकघातके संख्यात हजारवें भागप्रमाण अन्तर्मुहूर्त काल में पतन होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इस प्रकार अनुभागका घात अप्रशस्त प्रकृतियोंका ही होता है, प्रशस्त प्रकृतियोंका नहीं। रसगदपदेसगुणहाणिट्ठाणगफडयाणि थोवाणि । अइत्थावणणिक्खेवे रसखंडेणंतगुणियकमा ।। ८१ ॥ रसगतप्रदेशगुणहानिस्थानकस्पर्धकानि स्तोकानि । अतिस्थापननिक्षेपे रसखण्डेऽनन्तगुणितक्रमाणि ॥ ८१ ॥ सं० टी०–रसगतान्यनुभागसंबंधीनि प्रदेशगुणहानिस्थानकस्पर्धकानि कर्म परमाणुसंबंध्येकगुणहानिस्थितिस्पर्धकानि स्तोकानि ९ । ततः अतिस्थापनास्पर्धकान्यनंतगुणानि ९ ख । ततः निक्षेपस्पर्धकान्यनंतगुणानि ९ ख ख। ततः अनुभागकांडकस्पर्धकान्यनंतगुणानि ९ ख ख ख। अनेनानुभागकांडकायामाल्पबहुत्वं प्रदर्शितं ॥ ८१ ।। __स० चं-अनुभागकौं प्राप्त असे कर्म परमाणुसंबंधी एक गुणहानिविष स्पर्धकनिका प्रमाण सो स्तोक है । तातें अनंतगुणे अतिस्थापनारूप स्पर्धक हैं । तातें अनंतगुणे निक्षेप स्पर्धक हैं । तातें अनंतगुणा अनुभागकांडकायाम हैं । इहां औसा जानना ___ कर्मनिके अनुभागवि स्पर्धक रचना है तहां प्रथमादि स्पर्धक स्तोक अनुभागयुक्त हैं। ऊपरिके स्पर्धक बहुत अनुभागयुक्त हैं। तहां तिनि सर्व स्पर्धकनिकौं अनंतका भाग दीएं बहुभाग मात्र जे ऊपरिके स्पर्धक तिनके परमाणनिकौं एक भागमात्र जे नीचले स्पर्धक तिनिवि केते इक ऊपरिके स्पर्धक छोडि अवशेष नीचले स्पर्धकनिरूप परणमावै हैं। तहां केते इक परमाणु पहले समय परिणमामैं है, केते इक दूसरे समय परिणमावै है, औसैं अंतर्मुहूर्त काल करि सर्व परमाणू परिणमाइ तिनि ऊपरिके स्पर्धकनिका अभाव करे है । इहाँ समय-समय प्रति जो द्रव्य ग्रह्या ताका तौ नाम फालि है ल ह असं अतमुहतं करि जो कार्य कीया ताका नामकाण्डक है। तिस कांडक करि जिनि स्पर्धकनिका अभाव कोया सो कांडकायाम है। बहरि तिनिका द्रव्यकौं जे कांडकघात पीछे अवशेष स्पर्धक रहैं तिनिविष, तिन प्रथमादि स्पर्धकनिविर्षे मिलाया ते तो निक्षेपरूप है अर जिनि ऊपरिके स्पर्धकनिविौं न मिलाया ते अतिस्थापनरूप हैं ।। ८१ ।। विशेष-अनुभागगत एक प्रदेशगुणहानिमें जितना अनुभाग होता है उसे अनुभागगत प्रदेश गुणहानिस्थान कहते हैं। इसमें अनुभागस्पर्धक सबसे स्तोक होकर भी अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं। इनसे अतिस्थापनागत अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणे होते हैं । अपकर्षणके समय जो अनुभागस्पर्धक अतिस्थापनारूप रहते हैं अर्थात् जिन अनुभागस्पर्धकोंको उल्लंघन कर उनसे नीचे के अनुभागस्पर्धकोंमें निक्षेप किया जाता है वे अतिस्थापनारूप अनुभागस्पर्थक अनुभागगत एक प्रदेशगुणहानिसम्बन्धी स्पर्धकोंसे अनन्तगुणे होते हैं ऐसा यहाँ समझना १. तस्स 'पदेसगुणहाणिट्रातफययाणि थोवाणि । अइच्छावणाफट्याणि अणंतगुणाणि । णिवखेवफद्दयाणि अणंतगुणाणि । आगाइदफद्दयाणि अणंतगुणाणि । क० चू०, जयध० भा० १२, पृ० २६१ आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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