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________________ ६२ लब्धिसार सं०टी०-एकैकस्थितिखंडनिपतनकाल:, एकैकस्थितिबंधापसरणकालश्च समानावंतर्मुहर्तमात्रौ । तस्मिन्नंतर्मुहर्ते संख्यातसहस्राण्यनुभागस्य खंडानि निपतंति । एकस्थितिखंडोत्करणस्थितिबंधापसरणकालस्य २१२ संख्यातकभागमात्रोऽनुभागखंडोत्करणकाल इत्यर्थः २ । अनेनानुभागकांडकोत्करणकालप्रमाणमुक्तं ।। ७९ ॥ आगें अनुभागकांडकघातकौं कहिए है स० चं-जारि एकबार स्थितिसत्त्व घटाइए असा स्थितिकांडकोत्करणकाल अर जाकरि एकबार स्थितिबंध घटाइए सो स्थितिबंधापसरण काल ए दोऊ समान हैं अतर्मुहूर्तमात्र हैं । बहुरि तिस एक विर्षे जाकरि अनुभागसत्त्व घटाइए असा अनुभागखंडोत्करण काल संख्यात हजार हो हैं जाते तिस कालतें अनुभागखंडोत्करण यहु काल संख्यातवे भागमात्र है ।। ७९ ।। विशेष-एक स्थितिकांडकघातका तथा एक स्थितिबन्धापसरणका काल समान अन्तर्मुहूर्त है। इनके कालके भीतर हजारों अनुभागकाण्डकोंका पतन हो जाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। असुहाणं पयडीणं अणंतभागा रसस्स खंडाणि । सुहपयडीणं णियमा पत्थि त्ति रसस्स खंडाणि ॥ ८० ॥ अशुभानां प्रकृतीनामनन्तभागा रसस्य खण्डानि । शुभप्रकृतीनां नियमान्नास्तीति रसस्य खण्डानि ॥ ८०॥ सं० टी०-अशुभानामप्रशस्तानामसातादिप्रकृतीनां रसस्यानुभागस्य अनंतबहुभागमात्राणि खंडानि भवंति । शुभप्रकृतोनामनुभागस्य खंडानि नियमान्न संति इति हेतोरशुभप्रकृतीनामेव विशुद्धया अनुभागखण्ड संभवः। अपूर्वकरणप्रथमसमयानुभागस्यानंतबहुभागमानं प्रथमानुभागखण्डं व ९ ना ख पुनरवशिष्टानंतक भागस्यानतबहुभागमात्रं द्वितीयखण्डं व ९ ना ख इत्यादि क्रमेणांतर्मुहूर्तेऽतमुहर्ते २ १ एकैकमनुभागखण्डं ख ख निपतति । प्रतिसमयमेकै कफाल्यपनयनं भवति, अनेन अनुभाग कांडकायामशुभाशुभप्रकृतिविषयविभागश्च प्रदर्शितः ॥ ८॥ स० च-अप्रशस्त जे असातादि प्रकृति तिनका अनुभाग कांडकायाम अनंत बहुभाग मात्र है । अपूर्वकरणका प्रथम समयविर्षे जो पाइए अनुभागसत्व ताकौं अनतका भाग दाएं तहां एक कांडकरि बहभाग घटाव। एक भाग अवशेष राखं है। यह प्रथम खण्ड भया याकौं अनतका भाग दीएं दूसरे कांडक करि बहभाग घटाइ एक भाग अवशेष राख है। असैं एक एक अंतर्महर्त करि एक एक अनुभागकांडकघात हो है तहाँ एक अनुभागकांडकोत्करणकालविर्षे समय समय प्रति एक एक फालिका घटावना हो है । बहुरि सातावदनाय आदि प्रशस्त प्रकृतिनिका अनुभागकांडकघात नियमत नाही है ।।८०॥ १. अणुभागखंडयमप्पसत्थकम्मंसाणमणंता भागा। क. चू, अणुभागखंडयमप्पसत्थाणं चेव कम्मान होइ, पसत्थकम्माणं विसोहीए अणुभागवडूिंढ मोत्तूण तग्धादाणुववत्तीदो। जयध० भा० १२, पृ० २६१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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