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________________ लब्धिसार कोटिर्भवति । कस्यचित् पुनरुत्कृष्टा कर्मस्थितिरधिकांत:कोटीकोटिसागरोपमा भवति । तदनुसारेण स्थिति कांडकमपि जघन्यमत्कृष्टं च संभवतीत्यर्थः । मध्ये कांडकविकल्पा असंख्येया: प ११ स्थितिकालश्च ततः १ संख्येय गुणाः प १२ एतावत्सु कांडकविकल्पेषु प्र० प ११ यद्येतादतः स्थितिविकल्पा संभवंति फ प २१ तदा एकस्मिन् कांडकविकल्पे कियंत: स्थितिविकल्पाः संभवेयुः इ १ इति त्रैराशिकलब्धाः एककांडकविकल्पे संख्येयाः स्थितिविकल्पाः लब्धं २ अंकसंदृष्टौ कांडकविकल्पाः पंचप्रमाणं प्र स्थितिविकल्पा पंचदश फलं फ इच्छाकांडकविकल्प एकः इ १ लब्धाः स्थितिविकल्पास्त्रयः लब्ध ३ । एवमपूर्वकरणप्रथमसमयं प्रारब्धस्थितिकांडकमादि कृत्वा अंतर्महर्ते अंतर्महर्ते एकैकस्थितिकांडकोत्करणसमाप्तौ सत्यां अपूर्वक रणकाले संख्यातसहस्राणि स्थितिकांडकानि भवति । अपूर्वकरणकालस्य २११ संख्यातकभागमात्रः स्थितिकांडकोत्कर्षणकालः, ततः एतावति काले प्र२१यद्यकं स्थितिखंडमत्कीर्यते फ १ तदा एतावति काले इ २११ कियंति स्थितिखंडान्यत्कीर्यते ? इति त्रैराशिकेन लब्धानि अपर्वकरणकाले संख्यातसहस्राणि स्थितिखंडानि भवति । लब्ध १० ० ० ॥ ७७ ॥ आगें स्थितिकांडकघातका स्वरूप कहैं है स० चं-अपूर्वकरणका पहिला समयवि कीया असा स्थितिखंड कहिए स्थितिकांडकायाम सो जघन्य तो पल्यका संख्यातवां भागमात्र अर उत्कृष्ट पृथक्त्व सागरप्रमाण है। पृथक्त्व नाम सात वा आठका जानना। एक कांडककरि एती स्थिति घटावै है । यद्यपि तहां सत्त्व स्थिति सामान्यतैं अंतःकोटाकोटी है तथापि कोइकै तौ अंतःकोटाकोटी पल्यमात्र जघन्य स्थितिसत्व है कोईक अंतःकोटाकोटी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिसत्व है तातें स्थितिके अनुसारि कांडक भी जघन्य उत्कृष्ट है मध्यवि कांडकके भेद असंख्याते हैं। तिनिमैं संख्यातगुणे स्थितिके भेद हैं। ता संख्यात स्थितिभेदनिविष एक कांडक भेद पाइए है। अंक सदष्टि कार कांडक भेद पांच स्थिति भेद पंद्रह तहां राशिक कीए एक कांडक भेदविर्षे तीन स्थितिभेद पावै । असे एक एक स्थिति कांडकका घात अंतर्मुहूर्त काल करि होइ सो असें स्थितिखंड अपूर्वकरणके कालविर्षे संख्यात हजार हो हैं जातें अपूर्वकरणके कालके संख्यातवे भागमात्र स्थितिकांडकका काल है ।। ७७ ॥ विशेष-समझो अपूर्वकरणके प्रथम समयमें ऐसे दो जीवोंने प्रवेश किया जिनके विशुद्धिरूप परिणाम समान होते हैं, फिर भी उनमेंसे एक जीव पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण स्थिति कांडक घातके लिए ग्रहण करता है और दूसरा जीव सागरोपमपृथक्त्वप्रमाण स्थितिकाण्डक घात के लिये ग्रहण करता है । ऐसा क्यों होता है, क्योंकि जब उनके विशुद्धि परिणाम समान होते हैं तो उन द्वारा घातके लिये ग्रहण किया गया स्थितिकाण्डक समान होना चाहिए? इस प्रश्नका समाधान करते हुए जयधवलामें बतलाया है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयसे पूर्व जितने विशुद्धि परिणाम होते हैं वे सब संसारके योग्य होनेसे समान ही होते हैं ऐसा नियम न होनेसे अपूर्वकरणके प्रथम समयमें स्थितिकाण्डकोंमें यह विसदृशता देखी जाती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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