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________________ उत्कर्षणका विचार स्थापन हो है, जातें इसविर्षे सो द्रव्य न दीया । इहां उत्कृष्ट स्थितिविर्षे अंतःकोटाकोटी सागरमात्र स्थिति अवशेष रही तिसविर्षे द्रव्य दीया सो यह निक्ष परूप भया तातें यहु घटाया अर एक अन्त निषेकका द्रव्य ग्रह्या ही है तातें एक समय घटाया है । अंक संदष्टि करि जैसैं हजार समयकी स्थितिविर्षे कांडक घातकरि सौ समयकी स्थिति राखी तहां हजारवां समयसम्बन्धी निषेकका द्रव्यकौं आदिके सौ समयसम्बन्धी निषेकनिविर्षे दीया तहाँ आठसै निन्याणवै मात्र समय उत्कृष्ट अतिस्थापन हो है ॥ ५९-६० ।। विशेष-स्थितिकाण्डकघातमें अन्तिम फालिके पतनके समय जो अपकर्षण होता है उसकी व्याघातविषयक अपकर्षण सज्ञा है। उसकी अपेक्षा निक्षेप अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थिति प्रमाण है और अतिस्थापना एक समय कम स्थितिकाण्डकप्रमाण है। जिन स्थितियोंमें अपकषित द्रव्य दिया जाता है उनको निक्षेप संज्ञा है तथा निक्षपरूप स्थितियोंके ऊपर तथा जिस स्थितिके द्रव्यका अपकर्षण होता है उसके नीचे जिन मध्यकी स्थितियों में अपकर्षित द्रव्य नहीं दिया जाता उनकी है। स्थितिकाण्डकघातमें उपान्त्य फालिके पतन होने तक तो अतिस्थापना एक आवलिप्रमाण ही रहती है । परन्तु अन्तिम फालिके पतनके समय वह एक समय कम स्थिति ण्डकप्रमाण प्राप्त होती है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिम निषकके द्रव्यका अपकर्षण विवक्षित है. अतः अन्तिम फालिका स्थितिकाण्डकगत स्थितियों में निक्षेप नहीं होता। स्थितिकाण्डकके नीचे जो अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थिति निक्ष परूप है उसीमें अन्तिम फालि सहित उसका निक्षेप होकर स्थितिकाण्डकगत समस्त स्थितिका उस समय समग्नरूपसे घात हो जाता है यह उक्त दोनों गाथाओंका तात्पर्य है। यहाँ उत्कृष्ट स्थितिके अन्तिम निषेकका अपकर्षण किया, इसलिए वह अतिस्थापनारूप नहीं है तथा नीचेकी अन्तःकोडाकोड़ी प्रमाणस्थिति निक्ष परूप है, अतः वह अतिस्थापनारूप नहीं है। अतः एक समय सहित अन्तःकोडाकोडी प्रमाणस्थितिको छोड़कर शेष सब स्थिति अतिस्थापनारूप जाननी चाहिए। आगे ६७वीं गाथा तक उत्कर्षणका विचार करते हैं सत्तग्गद्विदिं बंधे आदित्थियुक्कड्डणे जहण्णेण । आवलि-असंखभाग तेत्तियमेत्तेव णिक्खिवदि ॥६१॥ सत्ताग्रस्थितिबन्ध आदिस्थित्युत्कर्षणे जघन्येन । आवल्यसंख्यभागं तावन्मात्रे एव निक्षिपति ॥६१॥ १. वाघादेण कधं ? जइ संतकम्मादो बंधो समयत्तरो तिस्से दिदीए णत्थि उक्कडणा। जइ संतकम्मादो बंधो दुसमयुत्तरो तिस्से वि संतकम्मअग्गदिदीए णत्थि उक्कड्डणा । एत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागो जहणिया अइच्छावणा। जदि जत्तिया अइच्छावणा तत्तिएण अब्भहिओ संतकम्मादो बंधो तिस्से वि संतकम्मअग्गट्रिदीए णत्थि उक्कडगा। अण्णो आवलियाए असंखेज्जदिभागो जहण्णओ णिक्खेवो। जइ जहणियाए अइच्छावणेण जहण्णएण च णिक्खेवेण एत्तियमेत्तण संतकम्मादो अदिरित्तो बंधो सा संतकम्मअग्गदिदी उक्कड्डिज्जदि । क० चू०, जयध० भाग ८, पृ० २५७-२५९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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