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________________ अपूर्वकरणमें शुद्धिका विचार ३७ विदियकरणादिसमयादंतिमसमओ ति अवरवरसुद्धी । हिंगदिणा खलु सव्वे होति अणतेण गुणियकमा ॥ ५२ ।। द्वितीयकरणादिसमयादंतिमसमय इति अवरवरशुद्धिः । अहिगतिना खलु सर्वे भवंत्यनंतेन गुणितक्रमाः ॥५२॥ सं० टी०-अपूर्वकरणप्रथमसमयादारभ्य आ अंतिमसमयं जघन्योत्कृष्टविशुद्धिपरिणामाः अनंतगुणाः । तद्यथा-तत्प्रथमसमये जघन्यविशद्धिपरिणामादत्कृष्टविश द्धिपरिणामोऽनंतगणः । तस्मादपरितनसमयजघन्यविशुद्धिपरिणामोऽनंतगुणः । तस्मात्तत्समयोत्कृष्टविद्धिपरिणामोऽनंतगुणः । एवं सर्वेऽपि जघन्योत्कृष्टविशुद्धिपरिणामा अनंतगुणितक्रमा अहिगत्या गच्छंति यावच्चरमसयमजघन्योत्कृष्टपरिणामो। अत्रानुकृष्टिखंडविकल्पो नास्ति, अधस्तनसमयसर्वोत्कृष्टपरिणामादपरितनजघन्यपरिणामस्यानंतगणत्वसंभवात् ।। ५२॥ अपूर्वकरण में विशुद्धिके तारतम्यका निर्देश स० च-दूसरे करणका प्रथम समयतें लगायअंत समय पर्यंत अपने जघन्यतै अपना उत्कृष्ट अर पूर्व समयके उत्कृष्टतै उत्तर समयका जघन्य परिणाम क्रमतें अनंतगुणी विशुद्धता लीएं सर्पको चालवत् जानने । इहाँ अनुकृष्टि नाहीं ॥ ५२।। विशेष-प्रथम समयकी जघन्य विशुद्धि सबसे स्तोक है। उसी समयमें प्राप्त होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धि असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंका उल्लंघनकर प्राप्त होती है, इसलिए प्रथम समयकी जघन्य विशद्धिसे यह उसी समयकी उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है। उससे दूसरे समयमें प्राप्त होनेवाली जघन्य विशुद्धि अनन्तगुणी है जो मात्र अनन्तगुणवृद्धिरूप न होकर असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान पतित विशुद्धिकी वृद्धि होने पर प्राप्त होतो है। उससे उसो दूसरे समय में प्राप्त होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुणी है, क्योंकि यह असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानरूप विशुद्धिको उल्लंघनकर अवस्थित है। इसी प्रकार अंतिम समय तक प्रत्येक समयमें प्राप्त होनेवाली जघन्य और उत्कृष्ट विशुद्धिका यही क्रम जानना चाहिए । इस गुणस्थानमें जघन्यसे उत्कृष्ट, उत्कृष्टसे जघन्य, पुनः जघन्यसे उत्कृष्ट इत्यादि क्रमसे विशुद्धिको सर्पकी चालके समान बतलानेका यही कारण है। अथापूर्वकरणपरिणामस्य कार्यविशेषज्ञापनार्थमाह गुणसेढीगुणसंकमठिदिरसखंडा अपुवकरणादो। गुणसंकमेण सम्मा-मिम्साणं पूरणो त्ति हवे ॥ ५३॥ गुणश्रेणीगुणसंक्रमस्थितिरसखंडा अपूर्वकरणात् । गुणसंक्रमेण सम्यक्-मिश्राणां पूरण इति भवेत ॥ ५३॥ १. अपुवकरणस्स पढमसमए जहणिया विसही थोवा । तत्थेव उक्कस्सिया विसोही अणंतगणा। विदियसमए जहणिया विसोही अणंतगुणा । समये समये असंखेज्जा लोगा परिणामटाणाणि । एवं णिव्वग्गणा च । चू० सू०, जयध० भा० १२, पृ० २५२ आदि । २. अपुवकरणपढमसमए ट्ठिदिखंडयं जहण्णगं पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागो, उक्कस्सगं सागरोवमपुधत्तं । ट्ठिदिबंधो अपव्वो । अणुभागखंड यमप्पसत्थकम्माणमणंता भागा। तस्स पदेसगुणहाणिट्ठाणंतरफद्दयाणि थोवाणि । अइच्छावणाफद्दयाणि अणंतगुणाणि । णिक्खेवफयाणि अणंतगुणाणि । आगाइदफद्दयाणि अणंतगणाणि । अपुव्वकरणस्स चेव पढमसमए आउगवज्जाणं कम्माणं गणसेढिणिक्खेवो अणियट्टिअद्धादो अपुब्वकरणअद्धादो च विसेसाहिओ । जयध० भा० १२ पृ० २६० प्रभृति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001606
Book TitleLabdhisar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Shastri
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1980
Total Pages744
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Karma, & Samyaktva
File Size15 MB
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