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________________ २२६ दुन्निमित्तह पिसुणु वामच्छि महु का पुणु पुणु फुर, सीहवार थिउ काई निज्झ्णु । परिचित्त-निय संचिग्णु, कवणि कज्जि सासकु मह मणु ।। fi महु भाउ कि मरणु, सोमजसिण वालेण । अहव अगाले वि संभरिउ, सोमजसह कालेण ।। २५२६ ॥ एवं चितइ जाव जिण-जाउ जुगाइजिदिचरियं तावाइ सोमजसु लुलिय- केसु गुरु- सोग-निब्भरु' । सारच्छ-सारहिसहिउ विमणु-दुमणु विणमंत - कंधरु ।। पणमइ जणयह पयकमल, दीह-सरिण रोयंतु । भाउहु सोडीरिम-समुह, एरिस गुण वन्तु ।। २५२७।। निद्ध-बंधव भग्ग-साहार, गुण- सायर सर-ससि, कित्ति कण्ण-कुलहर महाबल । रह-मोडण हय-हणण, करडि-करड - विद्दवण- पच्चल ॥ सुजुज्जतह समर-मुहि, मुह दक्खवइ न कोइ । सो मिल्लिवि जसु कित्तियह, कुमरु गयउ सुर-लोड ।। २५२८ ।। जेण जगडिउ भरह-खंधारु, जि दंडु दंडाविह, जक्ख-सक्खु लिउ हत्थ मोडिवि । जि मेहडंबरु भरह-हत्थिनाह हउ समरि गंजिवि ॥ एक्क्कउ जसु वर - चरिउ, चित्ति चमक्का देइ । सो जसु मिल्लिवि अत्थमिउ, तायह पय पणमेइ ।। २५२९ ।। सुणिवि बालह मरणु बाहुबलि, अवगण्णिय सत्त- गुणु, छिन्न-रुक्खु जिह पडिउ महियलि । कह कह वि आसणि ठविउ, लद्ध-सण्णु गेहवि करयलि ।। एहि दुहि तिहिं चउगुणिहि, पुहइहि पुरिस- पहाण । सव्व-गुणायर जग-पवर, विरला कुमर-समाण ।। २५३० ।। देसु देउ को भंडारु, रु पट्टणु सुहि सयणु, रण्णु वसिमु जल थलु महीयलु । पायालु आयासु दिसि विदिसि अप्पु तिहुयणु चराचरु ।। सुण-वाइ बुद्धेण जिह, महु मणि किंपि न ठाइ । अनिलवेग तुह बाहिरउं, सहु सुन्न पडिहाइ ।। २५३१ ।। कह न खंडिय दड्ढ - विहि-हत्थ, वाहिं तह तुह कुमरि कहि न कज्जु जं किंपि सिद्धउं । निक्कज्जु किं अवहरिउ, पुरिस- रयणु तिहुयणि पसिद्धउं ॥ रह न रूस मज् मणु, सो पड़ पेरिउ पाउ । तुहु पुणु पयइ अरूव धरु, हउं कहि घल्लउं घाउ ।। २५३२ ।। एत्यंतरे भणियं मंतिणा जासु सत्तु वि सुर्याहिं सुमरंत, तिगत गुण, सग्ग जेण सुर-सिर धुणाविय । पायालि भुवनाहिवहं, भवण भति जि जसेण मालिय ॥ समर - महाभर-धुर-धवलु, अनिलवेगु तुह पुत्तु । देव जियइ जस-जीविएण, रुज्जइ काई निमित्तु ।। २५३३ ।। काई किज्जइ तेहि जाएहि, जसु जाहं न हु वित्थरङ, तिहूयणे वि परलोगि पत्तहं । जीवंतह कवणु गुणु, निग्गुणाहं पुरिसत्थ- चत्तहं ॥ जाहं न चाउ न चारहडि, पर-उवयारु न नाणु । ताहं अयागल थण-सरिसु, जीविउ मरण- समाणु ।। २५३४ | ! सुणिवि कुमरह मरण-वृत्तंतु, || अंतेरु नरवहि, मुक्क- केसु विलुलंत भूसणु । कर घाय-हय- वच्छ्रयलु, करुण रुइय-रव-भरिय महियलु जसमइ विलवइ काई विहि, वालह वाहिय हत्थ । अहवा निग्धिण निग्धिणिण, कम्मिण हुंति कयत्थ ।। २५३५ ।। इस पाठ के स्थान में पा० प्रति में यह पाठ मिलता है । १. दी उन्ह नीसास भरभरिय देहु दुह सय निरंतरु २ मई मेल्लिवि तुहुं कहि गय उरणमुहि संगर धीर us विणु वलु हल्लोहलिय पुर्याह एक्कल वीर । २५१८ ।। ३. विसमु पा० । ४. नासु सुत्त वि सुयं सु० जे० । ५ भर वर धव० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
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