SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जुगाइजिणिंद-चरियं अहरियकामधेणु-चिंतामणि-कप्पद्रुम-महीरुहे । तुह पयपउमि होउ भसलत्तणु मह सत्थाहसन्निहे ॥१३९२।। हय-गय-चंद-सूर-चक्कंकुस-सोत्थिय-सत्तिलंछिए । भवभयभीयभव्वसरणागयलोयणभमरभसलिए ।।१३९३।। निम्मलचंदकिरणजससेडियधवलियसयलतिहुयणे । तुह पयपउमि होउ आजम्मु वि निच्चलभत्ति मह मणे ।।१३९४।। परिमलमिलियबहलभमरावलिगुंजारवमणोहरे । बहुलायन्नपुन्नपयपूरियघोणादहसमुब्भवे ।।१३९५।। नासावंसनालसुपइट्ठियदीहरनयणपत्तले । तुह मुह-कमलि-विउलि मह लोयणभमर वसिज्ज निम्मले ॥१३९६।। तिहुयणलच्छिनिलया नमिरामरमउडकिरीडचुंबिया । सुरकयपायवीढमणिकिरणकरंबियनहमऊहया ॥१३९७।। निम्मलकणयकमलरिंछोलिपइट्टियललियपयतला। तुह पहु पायसरणु मह भवि-भवि भवभयहरणपच्चला ।।१३९८।। इय थोऊण जिणिदं पुरओ नरनारि सव्व देवाणं । उवविट्ठो संतुट्ठो सक्को पुव्वुत्तरदिसाए ।।१३९९।। बीयम्मि हुंति तिरिया तइए पायारमंतरे जाण । पायारजड्ढे तिरिया वि केवला मणुयमिस्सा वा ॥१४००।। असुरनरेसरहिं सुरेहिं सहुं-- वइरु न वि राउ न वि रोसु मणि करहिं केचि ओसरणि संठिय । नियमित्तु जिहां बवहरहि, वद्ध-वइर जे नर महिड्ढिय । तहिं देवासुर-कोडि-सय, संकडि अइसंचाहि । जणु संतुटुउ संचरइ, बुड्डउ अमिय-पवाहि ॥१४०१॥ हत्थि हिंडहिं' सरिस सरहेहिं-- सद्ल सहुं सूयरेहि, तुरिय महिस न वि वइरु खट्टहिं । अन्नोन्न-संतुट्ठ-मण, सप्प-नउल सममेव लट्टहिं ।। विरुय उरब्भ पसंत-मण, मूसा अणु मज्जार । अवरोप्परु कीलंत तर्हि, मिल्लिवि निय-निय खार ॥१४०२।। एत्थ अवसरि मुक्क-मज्जाय-- मरुदेवि गुरु-सोग-भर-भरिय-चित्त विलवणहं लग्गिय । रे दिव्व ; अंतरि पडिवि, काई मज्झ एई आस भग्गिय ।। वउ पडिवज्जिवि वसह-गइ, तिणु जिम्ब रज्जु चएवि । कहिं वि गयउ न वि जाणियइ, अम्हह दुक्खइं देवि ॥१४०३।। निलय-वज्जिउ वसण-परिहिणु देसंतर परियडइ, तिसिउछुहिउ असहाउ दुत्थिउ । निरवेक्खु निय-जीवियह, दहइ देहु सो मह मण-त्थिउ ।। घरि घरि भिक्ख भमंतएण, भुवण-पसिद्ध-जसेण। कवणदुक्ख जि न पाविया, पुत्ति मह तणएण ।।१४०४।। पुत्तहिण रोयमाणीए-- पइ-दियहु तसु भगवइहि, पडिय नीलि अंतरिय लोयण । गुरु-मोह-मोहिय-मणह, जंति दियह दर-भुत्त-भोयण ॥ केम तरेवा भव-जलहि, विसमउ माया-मोहु । जो चित्तट्ठिउ चरिम-भवि, वद्धारइ सम्मोहु ।।१४०५।। दिव्व दंसिवि गरुय-दुक्खाइं जइ तुट्ठउ कह वि तुहुं, ता वि होज्ज मह एक्क पत्थण । पढमं चिय करि मरणु, मज्झु जेण न हवइ विडंबण।। पुत्त ! विओगानल तविउ,' दुक्ख-सयह कुलगेहु । समइ समागउ मरण-जलु, जइ निव्वावइ दिहु ।। १४०६।। विहि विडंबण कवण जं न करइ-- . तं दुक्खु दूसहु कवणु, जं न देइ देहिण रुट्ठउ । महु पुत्तु दुक्खिउ भमइ, भरहु रज्जु घरि करइ तुट्ठउ ।। अप्प-हियंकर बहुय नर, पर-हिय विरला केवि। एम भणंती पडिभणइ, भरहेसरु मरुदेवि ।।१४०७॥ . १. जि वव० पा०। २. हिंडिहिं जे०। ३. कोलंति जे० । ४. जाणिज्जइ पा० । ५. अम्ह दु० जे० । ६. निरवेक्ख पा०। ७. तवि तणु जे०। ८. ज्जु किर क० पा० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001593
Book TitleJugaijinandachariyam
Original Sutra AuthorVardhmansuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Dalsukh Malvania, Nagin J Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1987
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy