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________________ जैन आगम तेरापंथी केवल ३२ ग्रन्थों को ही मात्र मूलरूपमें जैनागमान्तर्गत- गिनते हैं । उनके मतसे टीकाओं का आगमरूपसे प्रामाण्य नहीं । आगमों के विषयमें इस मतभेद का मूल आगमों की सुरक्षा के लिए जो वाचनाएँ हुई उन्होंमें है । अतएव यहाँ संक्षेपमें उन वाचनाओंके विषयमें विचार कर लेना जरूरी है । इन वाचनाओंके विषयमें और श्रुतावतार के विषयमें अभी तक बहुत कुछ लिखा गया है। वाचना के विषयमें विस्तार से प्रयत्न मुनि श्री कल्याणविजयजी ने अपने 'वीरनिर्वाण संवत और जैन कालगणना' (सं० १९८७) में किया । तदनन्तर श्री पं० कैलाशचन्द्रजी ने 'जैन साहित्य का इतिहास-पूर्व पीठिका' (वीर नि. २४८९) में विस्तार से समालोचन किया है । श्रुतावतार के विषयमें षट्खडागमकी प्रथमभागकी प्रस्तावनामें विस्तारसे वर्णन है और उसीका विशेष विवेचन पं० कैलाशचन्द्रजी की उक्त पुस्तक में भी है । यहाँ तो मुझे इस विषयमें जो कुछ कहना है वह संक्षेपमें ही हो सकता है । और मैं जो कुछ कहना चाहता हूँ वह अब तक की इस विषयकी जो विचारणा हुई है उसीको लेकर ही होगा । पाटलिपुत्रकी वाचना । इस वाचना को श्वेताम्बर संप्रदाय मानता है। इस वाचनाका कोई उल्लेख' दिगम्बरों के प्राचीन साहित्यमें नहीं । श्वेताम्बरों में भी इसका सर्वप्रथम उल्लेख तित्थोगालीमें (गा० ७१४ से) है । यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि उसमें केवल इसी वाचनाका उल्लेख है और उसके बाद होनेवाली वाचनाओं का उल्लेख नहीं है । किन्तु चूर्णिमें है । अतएव मानना पडता है कि मूलमें तित्थोगाली नियुक्तिकाल की रचना है और चूर्णि पूर्व की रचना है। इस पाटलिपुत्र की वाचना की खास बात यही है कि दुर्भिक्ष अकाल-अनावृष्टि के कारण जैन श्रमण संघ को मगध से बाहर जाना पड़ा और कई श्रमण मृत्यु के शरण हो गये । सुकाल होने पर जो भी बचे थे वे पाटलिपुत्रमें एकत्र हुए और एक दूसरे से पूछ पूछकर ग्यारह अंग जिस रूप में उपलब्ध हो सका संकलित किया गया । किन्तु सिद्धान्त दृष्टिवाद किसी को याद नहीं भा । अतः सोचा गयो कि भद्रबाहु जो योगसाधनामें लगे हैं उन्हीं से इसकी वाचना ली जाय। भद्रबाहु ने स्थूलभद्र को वाचना दी किन्तु अपनी ऋद्धि के प्रदर्शनके कारण केवल दशपूर्वको अनुज्ञा दो-अर्थात् १४ में से केवल दश ही वे दूसरों को सकते हैं - ऐसा कहा । इस प्रकार स्थूलभद्र के बाद दशपूर्वका ही ज्ञान शेष रहा ।। यहाँ तित्थोगालीमें भद्रबाहु कहाँ थे यह नहीं स्पष्ट होता । किन्तु वे पाटलिपुत्र से कहीं बहुत दूर तो हो नहीं सकते थे। इसका स्पष्टीकरण हमें आवश्यक चूर्णिसे प्राप्त होता है । उसमें उमी प्रसंगमें लिखा है -"नेपालवत्तणीए य भद्द या हुसामी अच्छति चोद्दसपुवी” पृ० १८७॥ अतएव वे इस परंपराके अनुसार उज्जैन में जेसी कि दिगम्बरों की मान्यता है, हो नहीं सकते। दूसरी बात आवश्यक चूर्णिसे यह भी स्पष्ट होता है कि भद्रबाहु स्वामी अपनी साधना पूरी १ यहाँ मैंने केवल प्राचीनतम उल्लेखको प्राधान्य दिया है । अन्य उल्लेखों के लिए देखें सूत्रकृतांगकी मुनि श्री जबूविजयजी की प्रस्तावना पृ० २८ ।। २ यहाँ तित्थोगाली मूलरूप में जैसा था उससे अभिप्राय है । उपलब्धमें तो शक १३२३ तक की भी चर्चा है-गा० ६२४ । ३ मृत्यु वीर नि १७० । ४ मृत्यु वीर नि० २१५ में । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001589
Book TitleJain Darshan ka Adikal
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDalsukh Malvania
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Epistemology, Agam, & Canon
File Size4 MB
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