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जैन आगम
आगमों की सुरक्षा में एक दूसरी भी बाधा थी । ब्राह्मणोंमें वेद की सुरक्षा पितापुत्र की परंपरामें होती थी और जैनों में गुरुशिष्य परंपरामें । यह आवश्यक नहीं कि पिताको जैसा योग्य पुत्र मिलता है वैसा ही योग्य शिष्य गुरुको मिले । ऐसी स्थिति में आगमकी सुरक्षा कठिन थी । आगमकी सुरक्षा श्रमणों के अधीन थी और श्रमणों में प्रायः विद्याग्रहण की योग्य आयुवाले शिष्य श्रमणाचार्य को मिले यह संभव नहीं होता था । पिता अपने पुत्र को बाल्यकाल से वेद पढाता था किन्तु श्रमणोंमें यह व्यवस्था संभव नहीं थी । यह भी कारण है कि आगमों की शब्दपरंपरा और अर्थपरंपरा भी खंडितरूपमें ही प्राप्त होती है । फिर भी जो कुछ सुरक्षित रह सका है उससे हम भगवान महावीरके मौलिक उपदेश को आंशिकरूपमें हो सही प्राप्त कर सकते हैं । प्रस्तुत व्याख्यान में उस मौलिक उपदेश को ही ध्यान में रख कर मैंने जैनागमके विषय में चर्चा करना चाहा है ।
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वेद और जैनागमके प्रतिपाद्य विषयको देखा जाय तो कहना होगा कि दोनों में अंतर अवश्य है किन्तु वह भारतीय समग्र धार्मिक परंपरा का उत्तरोत्तर जो विकास हुआ है उसी के कारण है । भारतीय धार्मिक परंपरा उत्तरोत्तर जो नया नया रूप लेती है उसी शृङ्खला में एक कड़ी यह जैनागम भी है । उसे वैदिक धारासे सर्वथा पृथक् करके नहीं देखा जा सकता, उसे समग्र रूप से भारतीय परंपरा में जो विकास हुआ है उसी परिप्रेक्ष्य में ही देखना होगा । ब्राह्मण और श्रमण परंपरा में विरोध की बात कही जाती है किन्तु दोनों का जो विकास हम देखते हैं वह दोनों के पारस्परिक घातप्रत्याघात का हो फल है-ऐसा मानना आवश्यक है । अतएव दोनों का विकास स्वतन्त्र है - ऐसा नहीं किन्तु अन्योन्याश्रित है - यही मानना उचित है और ऐसा मानने पर यह भी मानना पड़ता है कि गंगा-जमुना के संगम के बाद जैसे दोनों नदीयाँ एकरूप हो जाती हैं वैसे ही भारतीय धार्मिक परंपरा में भी दोनों परपराएँ एकरूप हो जाती हैं और हमारे समक्ष हिन्दुधर्म के रूप में भारतीय धर्म परंपरा आती है । जब हम हिन्दुधर्म ऐसा नाम देते हैं तत्र ब्राह्मण और श्रमण का भेद गौण होकर दोनों का ऐक्य सिद्ध होता है । यही कारण है कि बाह्याचारकी दृष्टि से एक ब्राह्मणधर्मको किसी जैनधर्मी से अलग करना कठिन हो जाता है । वैदिकों - ब्राह्मणों में नाना प्रकार के पूजाप्रतिष्ठान और बाह्याचार को लेकर नानाप्रकार के भेद होने पर भी सभी वेद को अपना धर्मग्रन्थ मानकर एकरूपता सिद्ध करते हैं वेसे ही जैनोंने भी अपने आगमको' वेद संज्ञा देकर उस एकता की पुष्टि की है। इतनाही नहीं तत्तत्काल में प्रचलित विद्याओं के भी अपने आगमों में समाविष्ट करनेका जो प्रयत्न हुआ है वह भी इस की ओर संकेत करता है कि भारतीय परंपरा के विकास की एक कडीरूपमें ही हम जैनविद्याको देख सकते हैं सर्वथा स्वतंत्ररूप में नहीं ।
वेद से लेकर ब्राह्मण ग्रन्थों में जो भारतीयधर्म का रूप हमें मिलता है वह आध्यात्मिक नहीं किन्तु भौतिकवादी है, परिग्रहप्रधान है । उपनिषद में आकर अन्तर्निरीक्षण शुरू हुआ है यह स्पष्ट देखा जा सकता है । अर्थात् ही बाह्यदृष्टि को छोड़ कर अत्र अन्तर्मुख होकर चिंतन शुरू हुआ । यही कारण है कि उपनिषदोंमें यज्ञीय कर्मकांड का निराकरण करके आत्म
१. आचा. १०७; "दुवालसंगं वा प्रवचनं वा वेदो तं जे वेदयति स वेदवी" आचा. चू. पृ. १८५; विन्टरनित्स: हिस्ट्री ओफ इंडियन लिटरेनर भाग २, पृ.४७४ | पं० कैलाशचन्द्र, जैनधर्म पृ. १०७ ।
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