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काव्यत्व शक्ति का पूर्णपरिचय दिया है ।
प्रस्तुत चन्द्रप्रभ चरित्र का नामकरण इस के मुख्य नायक क्षत्रिय कुलोत्पन्न भ. चन्द्रप्रभ के नाम से हुआ
ग्रन्थारंभ में कवि ने प्रथम और द्वितीय पद्य में भ. ऋषभ देव का स्मरण किया है । चौथे और पांचवें पद्य में संसार को शान्तिप्रदाता भ. शान्तिनाथ का, छठे पद्य में विघ्नहर पार्श्वप्रभु का, एवं सातवें पद्य में लोक प्रदीप वर्तमान जैन शासन नायक वर्द्धमान का और आठवें तथा नौवें पद्य में समस्त कमेरूपी शत्रुओं का हनन करने वाले शेष तीर्थंकरों को स्मरण किया है । इसके पश्चात् कवि अपने महान् उपकारी शासन प्रभावक आचार्य विजयसिंह सरि को स्मरण कर सप्तभव निबद्ध ऐसे चन्द्रप्रभ चरित रचना की इच्छा प्रकट करते हैं । साथ में यह भी कहते हैं कि मुझे प्राकृत में चरित रचने की प्रेरणा आ. विजयसिंह सूरि से मिली क्योंकि उन्होंने प्रबन्ध महाकाव्य की संस्कृत में रचना की थी। किन्तु मैं मन्दमति हूँ अतः प्राकृत में दसपर्वयुक्त चन्द्रप्रभ चरित की रचना करता हूँ।
नौ रस युक्त चन्द्रप्रभ चरित का मुख्य रस शान्त है । जो प्रायः सभी सर्गों में प्रवाहित है । इन सर्गों में वैराग्य के कारणों के मिलने पर संसार की असारता, यौवन की चंचलता, शरीर और विषयों की निःसारता, जीवन की अनित्यता, मुनि दर्शन, उनका उपदेश, प्रवज्या, तपस्या और मोक्ष प्राप्ति का उपाय वर्णित है । शान्त रस के साथ श्रृंगार रस का भी आचार्यश्री ने भावमय शब्दों में वर्णन किया है । दिग्विजय से लौटा हुआ अजितसेन जब उत्सव पूर्वक नगर में प्रवेश करता है, उस समय उसे देखने के लिये विविध आभूषणों और वस्त्रों से सजी युवतियाँ अटारी में खड़ी वार्तालाप कर रही थी और कुमार को आकर्षित करने के लिए विविध चेष्टाएँ कर रही थी, उनका वर्णन हैं । साथ ही वसन्त ऋतु, वसन्तोत्सव में उद्यानविहार, जलक्रीडा, युवतियों का रासगान, सायंकाल, चन्द्रोदय, रतिक्रीडा आदि के सुन्दर वर्णन से कवि ने अपने काव्य को श्रृंगारमय बना दिया है । वीररस के वर्णन में भी कवि ने अपनी काव्यशक्ति का अच्छा परिचय दिया है । नगर में हाहाकार मचाने वाले उन्मत्त हाथी को पद्मनाभ द्वारा वश में करना , हाथी को अपना बताकर अपमानजनक व्यवहार करने वाले उन्मत्त राजा पृथ्विपाल के साथ वीरतापूर्वक लड़कर उसे दण्डित करना, अपने पूर्ववैरि असुर चंडरुचि के साथ युद्ध कर उसे वश में करना आदि वीरता के वर्णन वीररस, तथा युद्ध भूमि में मांस और रक्तासव के सेवन से उन्मत्त बनी हुई डाकनियों का कटे हुए सिर की माला पहन कर नत्य करने का वर्णन, रौद्र रस को प्रकट करता है । आकाश मार्ग से उतरते हुए चारणमुनि के देह के दिव्य प्रकाश से राजा अजितंजय का एवं राजसभा का आश्चर्य चकित होना, सिंहरथा कन्या का सिंह पर आरूढ हो मुनि का दर्शन करना आदि के वर्णन में हम अद्भूतरस का पान कर सकते हैं । पति पत्नी के वियोग, माता पिता के पुत्र वियोग एवं
वान के निर्वाण के समय उनके वियोग के वर्णन में कवि ने अपने काव्य को करुणरसमय बना दिया है । इस प्रकार विविध रसों से युक्त काव्य को कवि ने रसमय तो बना ही दिया है साथ में उपमा, उत्प्रेक्षा, श्लेषोपमा, रूपक, दृष्टान्त, व्यतिरेक आदि अलंकारों से भी अपने काव्य को अलंकृत किया है ।
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