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________________ प्रस्तावना प्रति परिचय ___ चंदप्पह-सामि-चरियं की एक ही ताडपत्रीय प्रति उपलब्ध हुई है । जैसलमेरु दुर्गस्थ जैन ताडपत्रीय ग्रन्थ भण्डार सूचिपत्र में इसका क्रमांक २५२ है । इसमें १७८ पत्र है । इन की माप ९.३१ x २१" है । ग्रंथ की स्थिति और लिपि सुन्दर है । प्रति के अन्त में लिपिकार ने “संवत १२१७ चैत्र वदि ९ बुधौ इतना ही लिखा है । मैंने इसी प्रति से प्रस्तुत चरित्र का सम्पादन किया है । ग्रन्थ परिचय आज तक अप्रकाशित चरित ग्रन्थों में यह एक महत्वपूर्ण चरित काव्य है । इसके कर्ता विद्वान् आचार्य जसदेव सूरि है । इन्होंने आशावल्लीपुरी के श्रीधवलभण्डसालिक श्रेष्ठी द्वारा निर्मित पार्श्वस्वामि जिन भवन में रहकर इस ग्रन्थ का आरंभ किया था और विक्रम सं. ११७८ पौषकृष्णा तेरस के दिन सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल में अणहिल्लवाड पत्तन में श्री चतुर्विंशति जिन आयतन से परिवृत श्री वीरनाथ जिन भवन में रहकर श्री वीरसूरि के आशिर्वाद से इस चरित ग्रन्थ को पूरा किया । इस ग्रन्थ का ग्रन्थ परिमाण ६४०० है । यह ग्रन्थ सम्पूर्ण पद्यमय और दस अवसरों में विभक्त है । इसकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है । बीच बीच में संस्कृत श्लोक भी उद्धृत है । पद्य में अधिक रूप से आर्या छन्द का प्रयोग किया है। कहीं कहीं वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित, भुंजगप्रयात, स्रग्धरा, अनुष्टुप, गीतिका, गाहा आदि छंद का भी प्रयोग किया है । बीच बीच में अपभ्रंश के दोहे भी दिये हैं। भगवान का जन्मवर्णन अपभ्रंश भाषा में किया है। इसकी भाषा आलंकारिक और समासबद्ध शब्दों की प्रचुरता से निबद्ध है । सुभाषितों एवं मुहावरों से परिपूर्ण होने से यह काव्य ग्रन्थ अधिक रोचक बना है । दान, शील, तप, भावना, सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, आराधक, विराधक, सम्यक्त्व के पांच अतिचार, श्रावक के पंचाणुव्रत, रात्री भोजन, जीवादि नौ तत्त्व, लोक स्वरूप, आठ कर्म और उनकी प्रकृतियाँ, जैन सम्मत भूगोल, खगोल का विषद वर्णन कर आचार्यश्री ने इस ग्रन्थ की उपादेयता बढ़ा दी है । छ हजार श्लोक प्रमाण इस लघु चरित्र काव्य में समस्त जैन धर्म के सिद्धान्तों का सुचारुरूप से निरूपण किया है । चंद्रप्रभ चरित्र एक महाकाव्य है । साहित्यकार के अभिप्रेत महाकाव्य की कसौटी पर यह खरा उतरता है। आठ सर्गों से अधिक सर्गबद्ध रचना को महाकाव्य कहते हैं। चन्द्रप्रभ चरित भी दस अवसरों में विभक्त है। महाकाव्य में देव या धीरोदातत्त्व आदि गुणों से विभूषित कुलीन क्षत्रिय एक नायक होता है । चन्द्रप्रभ स्वामी भी धीरोदात्त महान् पराक्रमी तीर्थंकर इस चरित के नायक है । इसमें श्रृंगार, वीर और शान्त इन तीनों में से एक रस प्रधान और अन्य रस गौण होते हैं । इस काव्य में भी यही हुआ है । इस चरित की कथा एक ख्याति प्राप्त महापुरुष की है । इस में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थों की चर्चा की गई है । इस काव्य का आरंभ नमस्कार से हुआ है । कवि ने एक सर्ग में एक ही छंद का प्रयोग किया है अन्त में अन्य छंदों का और कहीं कहीं अन्यान्य छंदों का भी प्रयोग हुआ है । कवि ग्रन्थारम्भ में सज्जन प्रशंसा और दुर्जन की निन्दा करते हुए अपने काव्य को तटस्थ भाव से निरीक्षण करने की सलाह देते हैं । इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है राजा, रानी, पुरोहित, कुमार, अमात्य, सेनापति, देश, ग्राम, पुर, सरोवर, समुद्र, सरित्, उद्यान, पर्वत, अटवी, मन्त्रणा, दूत, प्रयाण, मृगया, अश्व, गज, ऋतु, सूर्य, चन्द्र, आश्रम, युद्ध, विवाह, वियोग, सुरत, स्वयंवर, पुष्पावचय, जलक्रीडा आदि है । कवि ने प्रसंगानुसार इनका सुन्दर एवं रोचक ढंग से वर्णन कर अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001587
Book TitleChandappahasami Chariyam
Original Sutra AuthorJasadevsuri
AuthorRupendrakumar Pagariya, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year1999
Total Pages246
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Biography
File Size17 MB
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