________________
सिरिचंदप्पहजिणचरियं तिव्वज्झवसाणेण वि, हियए संघट्टहेउणा जस्स । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ॥ ७१ ॥ जल-जलण-सत्थ-विस-भयवालाइनिमित्तमेत्तओ जस्स । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। ७२ जस्स बलं आहाराओ चेव तत्तो वि कह वि गहियाओ । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ।। ७३ ।। दाह-जर-सास-सूलाइवेयणाहिं च जस्स तिव्वाहिं । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ॥ ७४ !। तेउल्लेसाइपराघायाओ जस्स विविहरूवाओ । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ॥ ७५ ॥ तयविसभुयंगमाई, फासेण वि जस्स विसमरूवेण । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ॥ ७६ ।। आणा-पाणनिरोहे, सकए अहवा परक्कए जस्स । जीयस्स झ त्ति विगमो, थिरत्तणे तस्स का आसा ॥ ७७ ॥ इय विविहोवक्कम-मज्झवत्तिणो जीवियस्स न थिरत्तं । अइभुक्खियनरमुहगयसरसफलस्सेव संसारे ॥ ७८ ॥ जणलोयणूसवकरं, धम्माइनरत्थसाहणसमत्थं । जं तारुण्णं तं पि हु, पहिपहियसमागमसमाणं ॥ ७९ ॥ जओरमणीयरमणिजणमणहरं पि विगरालरक्खसी एव । आगंतूण गसिज्जइ, जराए कयविविहरूवाए ॥ ८० ॥ तीए विणा वि जलोदर-भगंदरप्पमहवाहिसंघाया। रिखोलयंति अहवा, कुसीलवेयालबाल व्व ।। ८१ ।। सव्वावहारकारी, उयाहु कत्तो वि मच्चुदडवडओ । पडिऊण हरइ जीवाण जोव्वणं जीविएण समं ॥ ८२ ।। इय विविहोवद्दववियुयस्स तारुन्नयस्स विभवम्मि । खणदिट्ठनट्ठसंझब्भरायसममेव रम्मत्तं ॥ ८३ ।। न गणइ जेणऽवयारीण विविहपहरणविहत्थहत्थाण । पउरं वि बलं बलगव्वगव्विओ नियमणे पुरिसो ॥ ८४ ॥ जेण य समं च विसमं च कज्जमेयं इमं पि न धरेइ । चित्ते सहस च्चिय संपयट्टए भीमसेणो व्व ॥ ८५ ॥ तं पि बलं पाणीणं, वायाइक्खोहविहुरदेहाण । झ त्ति पणस्सइ कत्थ वि, पवणाहयसुहुमरेणु व्व ॥ ८६ ।। (विसेसयं) जओ भणियं - लंघण-पवण-समत्थो, पुल्वि होऊण संपयं कीस । हत्थग्गधरियदंडो, हिंडसि कंपंतगत्तो य ॥ ८७ ॥ किंनामओ तुहेसो, वयंस ! वाही कहेसु मह पुरओ । सो भणइ मित्त ! जइ अस्थि कोउयं सुण तदुवउत्तो ॥ ८८ ।। जेण जीवंति सत्ताई, निरोहम्मि अणंतए । तेण मे भज्जए अंग, जायं सरणओ भयं ॥ ८९ ॥ अहवा - जेट्ठासाढेसु मासेसु, जो सुहो वाइ मारुओ । तेण मे भज्जए अंगं, जायं सरणओ भयं ॥ ९० ॥ इय बलमवि देहीणं, जोइज्जंतं विवेयदिट्ठीए । पडिहाइ बुहाणाखंडलस्स कोदंड-खंडं व ॥ ९१ ॥ जाण पसत्ता सत्ता, केइ वि किवणत्तणेण ताव इहं । तासि चिय निहुणक्खणणवावडा ठंति सयकालं ॥ ९२ । न सुहं सुयंति भंजंति कदुसणं फट्ट-तुट्ट-वत्थाई । परिहंति वसंति य जुन्नखोल्लडे गरुयवयभीया ॥ ९३ ।। पुत्ताइकुडुंबस्स वि, दंसिंति न किंपि केवलं बिंति । नो विढवामो किंचि वि, न य अम्हं अत्थि किंपि धणं ।। ९४ ॥ एवं करिताण वि ताण तक्करा जाणिऊण ता कह वि । अन्नायचियत्तेहिं हरंति अहवा वि नरवइणो ॥ ९५ ॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org