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मीमांसा (चैत्यवन्दन मीमांसा) नामक ग्रन्थ और उस पर दो वृत्तियों की रचना की । उनके अन्तेवासी शिष्य आचार्य सिद्धसूरि है । उनके शिष्य श्रीदेवगुप्तसूरी है । इनका दीक्षा समय का नाम धनदेव था । उपाध्याय पद के मिलने पर जसदेव उपाध्याय के नाम से ये प्रसिद्ध हुए । इसी उपाध्याय काल में आशावल्लीपुर के श्री धवलश्रेष्ठी भण्डसालि के द्वारा निर्मित जिनमंदिर में रहकर इस चरित ग्रन्थ का आरंभ किया और संवत ११७८ में पौष वदी तेरस के दिन श्री सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल में अणहिल्लपुर के चतुर्विंशति जिनप्रतिमा से परिवृत श्री वीरजिन मन्दिर में रहकर आचार्य सिद्धसुरि के सानिध्य में इस ग्रन्थ को पूरा किया । इस ग्रन्थ का श्लोक परिमाण ६४०० है । श्रीचन्द्रप्रभ-चरित और उसका मूल स्त्रोत - ____ तीर्थंकर के जीवन पर प्रकाश डालनेवाले प्राचीनतम ग्रन्थ जैनागम है । भगवान चन्द्रप्रभ विषयक सम्पूर्ण जीवन चरित्र जैनागमों में उपब्ध नहीं होता किन्तु अल्प मात्रा में ही उल्लेख मिलता है। वर्तमान में उपलब्ध जैन आगम अंग, उपांग छेद, मूल एवं प्रकीर्णक इन पांच विभागों में उपलब्ध है । अंगसूत्र आचारांग, सूत्रकृतांग ऋषिभाषित जैसे प्राचीन आगमों में चन्द्रप्रभ का कही भी नामोल्लेख नहीं हुआ
नांग के दसवें स्थान में चन्दप्रभ अर्हत् दस लाख पूर्व का पूर्णायु भोग कर सिद्ध यावत् मुक्त हुए ” ऐसा उल्लेख मात्र है । चतुर्थ अंग सूत्र समवाय के तिरानवे वे समवाय में "अरहन्त चन्द्रप्रभ के तिरानवे गण और गणधरों का उल्लेख हुआ है । चौवीसवे समवाय में देवाधिदेव चौवीस की नामावली में ८ वें चन्द्रप्रभ देवाधिदेव का नाम है । इसी आगम के डेढसोवें समवाय में अरहन्त चन्द्रप्रभ डेढसो धनुष उंचे थे। ऐसा वर्णन है । समवायांग के १५७ वे सूत्र में जो संग्रहणी गाथा है उन में चन्द्रप्रभ विषयक निम्न उल्लेख है। भगवान चन्द्रप्रभ आठवें तीर्थंकर थे। उनके पिता का नाम महसेन और माता का नाम लक्ष्मणा था । पर्वभव का नाम दीर्घबाह था। जयन्ती नाम की शिबिका में बैठकर चद्राणणा नगरी के बाहर सहस्त्राम्रवन उद्यान में एक हजार पुरुषों के साथ षष्ठ तप करके दीक्षा ग्रहण की । दूसरे दिन सोमदत्त के घर भगवान ने क्षीरान्न से पारणा किया । इनके प्रथम शिष्य दत्त एवं प्रथम शिष्या वारुणि थी। अपने शरीर से बारह गुणा उंचे नागवृक्ष के नीचे ध्यान की परमोत्कृष्ट अवस्थामें उन्होंने केवलज्ञान दर्शन प्राप्त किया । आवश्यक सूत्र में चतुर्विंशति जिन स्तवन में चंदप्पह जिन का नामोल्लेख है । आगम ग्रन्थों मे केवल ये ही उल्लेख मिलते हैं । आगम पर लिखी गई नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी एवं टीका में चंद्रप्रभ विषयक उल्लेख अत्यल्प है । आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्मित आवश्यक नियुक्ति में एवं उन पर आ. हरिभद्र सूरि ने एवं मलयगिरि ने अपनी टीका में सभी तीर्थंकरों के साथ भ. चंद्रप्रभ विषयक जो विवरण प्राप्त है वह समयावांग सूत्र १५७ के अनुसार ही है । ___आगमेतर साहित्य में भ. चन्द्रप्रभ विषयक सामग्री प्रचुरमात्रा में मिलती हैं । दसवीं सदी से लेकर १८ वीं सदी तक में भ. चन्द्रप्रभ पर अनेक विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत भाषाओं में एवं वीसवीं सदी में हिन्दी गुजराती भाषा में चरित ग्रन्थ लिखे हुए मिलते हैं। १. चउप्पन्न महापुरिस चरियं, कर्ता – शिलांकाचार्य रचना स. ९२५ (प्रकाशित) २. कहावली कर्ता भद्रेश्वर सूरि, रचना काल १० वी सदी का उत्तरार्ध (अप्रकाशित) ३. चउपन्न महापुरिष चरित्र, कर्ता - आम्रदेवसूरि, रचना समय १२ वी सदि (अप्रकाशित) ४. तिलोयपण्णति – भाषा प्राकृत, रचना समय छठी शताब्दी का मध्य भाग (प्रकाशित)
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